Saturday, January 22, 2011

BAIJNATH--3

पिछली किश्त में मैं अखाड़े का प्रसंग अधूरा छोड़ बैठा था.
  अखाड़ा बनने की   भी एक कहानी है.
तो जहां पण्डित जी और बैज नाथ जी का संवाद जल्दि-जल्दि में  अधूरा  छूट गया था वहीं से शुरू करते हैं:          
बै. ना.:पण्डित जी, मैं किसी ज़िम्मेदारी से नहीं कतराना चाहता,मैं सिर्फ बदमज़गी से बचना चाहता हूँ.  
.  जी :इस मामले में मैं पूरी तरह से तेरे साथ हूँ और तेरी हर बात से सहमत भी  हूँ, इसलिए बिना किसी बात की चिंता किये तू तो बस अब ,'' हाँ  '', बोल दे ताकि मैं लाला लोगों से कह के अखाड़ा बनवाने का काम शुरू करवाऊं.        
बै. ना.:पण्डित जी इस बारे में,यदि आपकी आज्ञा हो तो, मैं कुछ अर्ज़ भी करना चाहता हूँ. 
प.जी.:अरे बाबा, कितनी बार कहूँ ,अब क्या लिख कर  दूं कि   हर बात साफ़-साफ़ बोल ताकि मैं उसके हिसाब से सारे क़ामों का इन्तज़ाम कर सकूं.
बै.ना.:नाराज़ ना हों पण्डित जी,मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि लाला जी लोग मन्दिर के कर्ता-धर्ता हैं और उन लोगों ने मन्दिर के आहते में अखाड़ा बनाने कि खुद ही इच्छा भी जताई है, मेरे विचार से यह  एक शुभ संकल्प है, अब इस से बढ़कर उन लोगों से आप  और क्या चाहते हैं ?
प.जी.:अरे मेरे भोले बाबा, तू क्या सोचता है कि मैं अखाड़ा यूं ही खुले में बनाने को कह रहा हूँ ,अरे भाई  आखिर यह मेरे बैजनाथ का अखाड़ा होगा, वोह बैजनाथ जिसने कुछ ही महीनों कि मेहनत से  लड़कों को पहलवान बना  कर दिखा दिया, तो भाई उसका अखाड़ा भी तो उसकी शान के हिसाब से   शानदार होना चाहिए. 
बै. ना.:पण्डित जी , मैं यह बात बहुत अच्छी  तरह से जानता हूँ कि आप मुझे अपने बच्चों  कि तरहचाहतेहैं ,और इसीलिये हाथ  जोड़कर  ,
आपसे यह प्रार्थना करना चाहता हूँ कि इस ज़रा सी कामयाबी के नाम पर मुझे इतना ज़्यादा ऊपर मत चढाओ कि अगर कहीं गिर पडूँ तो संभल ही ना पाऊँ. 
प.जी.:अच्छा मज़ाक नहीं पर  ज़रा समझने की कोशिश कर,कालेज वाली बात अभी ताज़ी-ताज़ी है,सब तेरे से बहुत खुश हैं इसीलिये  मैं इस मौके का पूरा-पूरा फ़ायदा उठाना चाहता हूँ.जब मन्दिर  की कमेटी वालों ने खुद आगे आ कर मेरे से तेरी राज़ी पूछने और फिर यहाँ पक्का अखाड़ा बनवाने की बात की तो मैंने बिना वक़्त गंवाए उनसे अखाड़े के ऊपर, अखाड़े के उस्ताद के रहने के लिए एक, एक कमरे का सैटबनवाने की भी मंज़ूरी ले ली.

बै.ना.: माफ़ करना पण्डित जी,पर यही तो मैं नहीं चाहता, अखाड़ा बने यह तो बहुत अच्छी बात है,लड़के आयें-कुछ अच्छा सीखें यह और भी अच्छी बात होगी ,मेरी दिली तमन्ना भी यही है,पर यह सब चन्द साहूकारों के दम पर हो ,मुझे नहीं अच्छा लगता,छोटे मुंह बड़ी बात कह बैठा हूँ पण्डित जी,इसलिए माफ़ी भी चाहता हूँ.  
प. जी. :  भैया, सब ठीक है पर सोच कब तक तू यूं ही भटकता रहेगा,इसी बहाने तेरा एक पक्का ठिकाना बन जाता. 
          
                 (पिछले कुछ महीनों से बैजनाथ जी मन्दिर के पीछे वाली गली में रघु तेली के घर में ऊपर चौबारे में डेढ़ रुपये महीना किराए पर रह रहे  थे.)




बै.ना.:पण्डित जी, आप मेरे बड़े हो, मुझे अपना समझते हो, इसलिए यह सब सोच रहे हो,इस  कस्बे   में मैं  आपको अपना  इकलौता माई-बाप भी मानता हूँ, पर आपके आगे हाथ जोड़ कर कहता हूँ  कि मुझे आप मेरे तेली वाले चौबारे में ही रहने दो,मैं सच कह रहा हूँ कि मैं  वहाँ बहुत मज़े में हूँ,मेरी तरफ से आप बिलकुल निश्चिन्त हो जाओ.

प.जी. एक तरफ माई-बाप कहता है दूसरी तरफ निश्चिन्त होने को कहता है,कैसे हो जाऊं निश्चिन्त और वोह भी तेरे जैसे फक्कड़ से ? अच्छा  बता तो,पिछले हफ्ते वो जो रज़ाई बनवाई थी  वो कहाँ गयी ?

बै.ना.:वो तो ---पण्डित जी,

प.जी.: क्या वो तो - वो तो , मैं सब जानूं बेटा , राधे बतावे था वो रज़ाई तूने जुम्मन  को दे दी.

बै. ना.: आप को तो मालूम है पण्डित जी उसकी बीवी के बच्चा हुआ है  ,कल यहीं आया था बड़ा दुखी था बेचारा और रो-रो के मुझे बता रहा था कि बीवी जापे में है और ओढ़ने को घर में  ढंग की कोई रज़ाई भी नहीं  है.मेरे से बिचारे का रोना बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने उस की बीवी-बच्चे के लिए वो रज़ाई दे दी.

प.जी. तू मुझे एक बात बता,वो जुम्मन नाई सारी खतौली छोड़ कर तेरे पास ही अपना दुखड़ा रोने क्यूं आया, क्या तू उसके बच्चे का बाप है? अरे, वो साला तो हर साल नए कैलैंडर की तरह औलाद पैदा करता है, रोज़ शाम को विस्की पीने के लिए उसके पास पैसे आ जाते हैं तो एक रज़ाई बनवाने में उसकी मां मर रही थी,जो तेरे पास रोने आ मरा ? अरे भोले नाथ,पिछले हफ्ते  उसने तेरी नयी रज़ाई देख ली थी और वो तेरी दानी-दाता वाली  आदत को भी जानता है,सो आ गया रज़ाई मांगने और तूने भी उठा के दे दी बिना आगा-पिच्छा सोचे.और फिर कहता है निश्चिन्त हो जाओ.कैसे हो जाऊं निश्चिन्त?

बै.ना.:पण्डित जी, आप भी ना कमाल ही करते हो, कहाँ की बात कहाँ ले गए,अच्छा अब यह सब छोडो और मुद्दे की बात पर आओ.तो अब सब से  पहले आप अखाड़ा शुरू  करवाइए. जब अखाड़े में बच्चे लोग आने लग जाएँ ,अखाड़ा जम जाए तब  बाकी के  खर्चों की सोचिएगा. 
हार कर पण्डित जी चुप लगा गए और फिर बोले ,'' भैया,जैसा तुझे जंचे वैसा कर और बिना देर-दार किये अखाड़ा शुरू कर दे   ''.
      पण्डित जी की अपनी कोई आस-औलाद नहीं थी.उनकी पत्नि बिना उन्हें कोई संतान की सौगात दिए एक दिन अचानक ही इस  फानी दुनिया से कूच कर गयी थी. शरीर उसका , हमेशा से मेहनती  स्वभाव की होने के     कारण, स्वस्थ और कसा हुआ था,ना कोई हारी ना बिमारी  शाम को अच्छी भली थी. रोज़ की तरह घर के सारे काम धन्दों से निबट के दो घडी बूढ़ी सास के पास भी आन बैठी थी और फिर रात को जो सोई तो सोई ही रह गयी, उठी ही नहीं .क्या जाने क्या हुआ ,कोई कुछ ना समझ सका.पण्डित जी बस अपना माथा पीट कर रह गए.
पण्डित जी की मां उठते-बैठते उन्हें रोज़एकहीबातकहतीं,''सीताराम,चालीस साल का मर्द बुड्ढा नहीं कहलाता,और फिर  बेटा, अब मेरे से घर का काम-धन्दा भी नहीं संभलता, बहू ने मुझे कभी किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने दिया,मेरी आदत ही नहीं रही घर का काम-धन्दा संभालने की .अब तू ही बता एकदम अचानक से मैं कैसे ये सब संभालूं ? बेटा, मेरी बात मान ले और फिर से शादी करके घर में एक बहू ले आ''.
  असलियत में तो जब से बहू परलोक सिधारी थी पण्डित जी ने घर के सारे काम-काज के लिए एक महाराजिन का इंतजाम कर दिया था.जो  सुबह की आई घर का सारा काम-काज  निपटा कर ही शाम के बाद अपने घर वापिस जाती थी.
पर फिर भी,कब क्या बनेगा,गाय का  सानी-पानी हुआ या नहीं,भण्डार की  कुण्डी कहीं खुली तो नहीं रह गयी,मुई बिल्ली मौका पाते ही दूध के बर्तन में मुंह मार लेती है. 
 ना  जाने ऐसी   कितनी   चिन्ताएं थीं जो अम्मा को बैठे -बैठे ही थका देती थीं.
अतः पण्डित जी रोज़ अम्मा का  आलाप सुनते और रोज़ उसे अनसुना कर के उठ जाते.
बहू की  मौत का सदमा झेल कर पण्डित जी अभी संभले ही थे कि उन  पर जैसे वज्रपात ही हो गया




  उनकी छोटी बहन  परमेसरी विधवा हो गयी .उसके पति को सांप ने काट खाया था, शामको गेंहूं के खेत में पानी लगा रहा था जब सांप के रूप में  काल आन पहुंचा था.अगर घर के लोग थोड़ी सी भी  समझदारी से काम लेते और गाँव के ओझा के पास जाने की बजाये उसे खतौली के अस्पताल में ले आते जो गाँव से सिर्फ दस-बारह मील की दूरी पर ही था ,तोशायद है की एक बार को  डाक्टरी दवाई का लिहाज मानते हुए काल भी बख्श देता पर जैसा कि हमेशा  से होता आया  है इन लोगों ने भी  अपनी गलती को बेचारे  भगवान् जी के मत्थे मढ़ते हुए  लम्बी- लम्बी सांसें भरींऔर  ,''जैसी भगवान् की मर्ज़ी'',  कहते हुए चुप कर के बैठ गए.
 पति की मौत के बाद सारे घर की आँखों की तारा  परमेसरी  ससुराल में अचानक सब को कांटे सी चुभने लगी.जब सास और जेठानी का कड़वा व्यवहार दिनबदिन बढ़ते-बढ़ते इतना  घिनौना   हो  गया  कि बर्दाश्त के भी बाहर हो गया  तो परमेसरी  अपने दोनों बेटों को लेकर भाई सीताराम के घर खतौली चली आई .उस वक़्त बड़ा घनश्याम पांच साल का था और छोटा राधेश्याम सिर्फ तीन का.
पण्डित जी ने सब अपने और अपनी बहन के भाग्य का दोष मानते हुए हाथ जोड़ कर नीयति के आगे सर झुका दिया और परमात्मा से दुआ मांगी कि वो उन्हें इतनी शक्ति दे कि वो अपनी जवान बहन और उसके दोनों अबोध बच्चों का अपनी सन्तान कि तरह पालन-पोषण कर सकें और सचमुच प्रभु ने उन्हें इस पुनीत कार्य को अच्छी तरह से करने के लिए  पूरा आशीर्वाद प्रदान  किया.
आज बारह साल बाद सत्रह साल का  घनश्याम सैकिंड डिविज़न में बोर्ड की दसवीं क्लास पास करके सीताशरण कालेज में ग्यारहवीं क्लास में और उसी कालेज में राधेश्याम नौवीं क्लास में पढ़ रहा था.
 ये दोनों भाई मन्दिर के पीछे पुजारी के परिवार के लिए बनाए गए हिस्से में ही रहते थे.सुबह-शाम दोनों वक़्त भोजन के लिए या कपडे आदि बदलने के लिए रोज़ माँ और नानी की हाज़री भरने ज़रूर पहुँच जाते थे.वैसे एक तरह  से दोनों भाई होस्टल लाइफ ही जी रहे थे,पर दोनों भाई खूब मस्त स्वभाव के होने के कारण बहुत मज़े में वहाँ रहते थे.
पण्डित जी रोज़ शाम को आरती आदि से निपट कर शहर में ही अपने घर चले जाया करते थे,और फिर अगले रोज़ सुबह ही मन्दिर में आते थे.
 राधेश्याम जिसे हम सब राधे कह कर बुलाते थे, मेरे साथ नौंवीं कख्या में पढ़ता था,वो क्योंकि घनश्याम को भाई साहब कहता था तो हम सब भी घनश्याम को,जो की वैसे भी हम सब से बड़ा था,भाई साहब ही कह कर बुलाते थे.अगर कभी हम लोगों में से कोई गलती से केवल भाई ही कह बैठता तो घनश्याम बाबू नाराज़ हो जाते,और एक दम से टोकते,कहते,''क्यों बे,भाई के साथ साहब लगाते ज़बान घिसती है?''और गलती करने वाले को बाकायदा  दोबारा से भाई साहब कहना पड़ता और गलती के लिए माफ़ी भी मांगनी पड़ती.पर भाई साहब थे भी सही माएने में हमारे ग्रुप के लीडर.जहां भी ज़रुरत पड़ती अपने बड़े होने का फ़र्ज़ निभाने से कभी नहीं चूकते थे.बैजनाथ जी जब पहली बार खतौली पहुंचे थे तब पण्डित जी से मिलने के लिए मन्दिर में घुसने से पहले उन्होंने इन्हीं के सर पर प्यार से हाथ फेरा था.और तभी से हमारी पूरी मंडली भाई साहब के नेतृत्व में बैजनाथ जी की  ख़ास  मुरीद बन चुकी थी.हमारी मंडली में मेरे और   इन दोनों भाइयों के अतिरिक्त हमारे कुछ दोस्त और भी थे. यह सभी हमारे साथ नौंवीं क्लास के ही विद्यार्थी  थे. 


एक था जग्गू , मंझौला कद पतला-दुबला  और फुर्तीला बदन .रंग गन्दमी और चेहरा ऐसा की हमेशा देखने से ऐसा लगता जैसे हंस रहा हो. पूरा नाम था जगन्नाथ   बजाज,पर सब जग्गू  कह कर ही बुलाते थे.आगे चलकर बाद में वो, क्या तो कसरत,क्या तो पहलवानी के दांव पेंच और क्या तो लाठी चलाना हर मामले में घनश्याम भाई साहब की बराबरी करने लग गया था.बड़े बाज़ार में उनकी बजाजे की दुकान थी.जहां आस-पास के गाँवों से दुकानदार लोग  थोक में कपड़ों के थान के थान खरीद कर ले जाते थे. दुकान पर उसके बूढ़े दादा जी और उसके पिता जी के साथ बारहवीं क्लास की बोर्ड की परीख्या में तीसरी बार  फेल हो जाने के बाद से उसका बड़ा भाई   जयदेव भी बैठने लगा था.पता नहीं क्यों पर जयदेव  हमारी पूरी मंडली से बड़ी खार खाता था .  जग्गू के मुकाबले उसका डील-डौल काफी बड़ा था.हम सब उसे बैल-बुद्धि कहते थे और वो आने-बहाने जब मौका मिलता हम लोगों में से किसी ना किसी को चपत लगाने से नहीं चूकता था.यह अलग बात है कि शिकायत लगाए जाने पर उसकी भी उसके पिता जी द्वारा अच्छी सिकाई होती थी. पर परेशानी यह थी कि शिकायत करने की आदत के बैजनाथ जी सख्त खिलाफ थे.उनका कहना था कि हर मामले से खुद निपटना सीखो,लेकिन अगर बिलकुल ही मामला अपने हाथ से बाहर जाता दिखाई दे तो किसी  दूसरे कि मदद लेने  में कोई हर्ज़ नहीं.
दूसरा था हुकमा,यानि हुकम चन्द बंसल .वो हर फन मौला था.हर काम के इन्तजाम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता था.बड़े प्रेम से मालिश करता और फिर कसरत करने में जुट जाता.कुश्ती  हलकी-फुलकी ही करता लेकिन लाठी चलाने  से बहुत कतराता था. उनका  काफी लंबा-चौड़ा तेल का कारोबार था.उनका घर भी बहुत बड़ा था.उनका अपना तेल निकालने का बहुत बड़ा कारखाना था,जहां तेल निकाल कर कनस्तरों में भरा जाता और कनस्तरों को सील करके बड़े-बड़े गोदामों में, ट्रकों में लाद  कर  दिल्ली भेजने के लिए, रख दिया जाता. उसके पिताजी को ,जिन्हें हुकमा बापू जी कह कर बुलाता था ,सारी खतौली  रघु तेली के नाम से जानती  थी.उस सस्ते ज़माने में जब लखपति होना मायने रखता था,तब रघु तेली लाखों का मालिक बताया जाता था. आज मैं सोचता हूँ तो हैरान होता हूँ कि फिर भी लोग-बाग़ उसे रघु तेली के नाम से ही जानते -पुकारते थेऔर वो लोग इस तरह पुकारे जाने पर बुरा भी नहीं मानते थे. मेरे ख्याल से कभी उनके पुरखों का  एक-आध तेल का कोल्हू रहा होगा जिसकी वज़ह से उन्हें तेली कह कर पुकारा जाता होगा ,  पर आज जब उनके बाप-दादा ने मेहनत करके  इतना बड़ा तेल का कारखाना और लम्बा-चौड़ा कारोबार खडा कर रखा था तब भी उन्हें तेली कह कर पुकारना बड़ा अजीब सा लगता है .पर लोग-बाग़ थे कि आज भी उन्हें तेली ही कहते थे.हमारे दोस्त हुकम चन्द बंसल  को अपने पैसे या बड़े कारोबार का कोई घमण्ड नहीं था. 
तीसरा था लून्जू.असली नाम निरंजन .वो कुछ ज़्यादा ही लंबा था,और हाथ हमेशा ढीले-ढाले  शरीर कि बगल में दोनों ऑर  लटकते रहते थे,इसीलिये  हम सब उसे लून्जू कहते थे, वैसे निरंजन बड़ा चुस्त था,उसके माता-पिता का गाँव में किसी हादसे में स्वर्गवास हो गया था और अब खतौली में अपने बेऔलाद मामी-मामा के पास पिछले बारह बरस से रहता  था. मामा-मामी ने उसके माता-पिता की मौत के  तुरन्त बाद जब वो अभी सिर्फ दो ही साल का अबोध बालक था उसे बाकायदा कोर्ट में जाकर गोद लिया था.उसके मामा की रेडियो की दुकान थी .लून्जू को वायरलैस का बड़ा शौक था और उसके चक्कर में वो अपनी स्कूली पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाता था.पर उसकी मामी उसकी इन कारस्तानियों को देख-देख कर बड़ी खुश रहती थी.उसके लेखे उसका बेटा बहुत बड़ा इंजीनिअर बनने वाला था.बैजनाथ जी से वोह हमेशा यही कहता था कि,''बड़े भाई ,मुझे ऐसी लाठी चलाना सिखा दो कि पांच-सात से तो अकेला ही निपट लूं''.और बैजनाथ जी हंस कर उसे हमेशा ही यही कहते कि ,''प्रेक्टिस करो,खूब प्रेक्टिस करो.
इस तरह छः लड़कों कि हमारी एक मज़बूत मंडली थे
जब पण्डित जी ने बैजनाथजी को अपनी इच्छानुसार अखाड़ा  बनाने और अपने हिसाब से उसका संचालन करने कीआज्ञा दे दी तो अगले दिन शाम को बैजनाथ जी  ने हम सब को मन्दिर के चबूतरे पर अपने साथ बैठाया और अखाड़ा  कैसे शुरू किया जाए इस पर चर्चा करने लगे.
बैजनाथ जी के पूछने पर सबसे पहले लून्जू बोला,''बड़े भाई ,मैं अपनी दुकान से मामा जी को कह कर फिलिप्स का एक बड़े वाला रेडियो ले आता हूँ ,जब उसपर गाने बजेंगे तो उन्हें सुनने के लिए काफी लोग इकट्ठे हुआ करेंगे,और  यहाँ अखाड़े पर खूब रौनक  रहा करेगी''.
"अखाड़े में रेडियो क्या काम ? बड़े भाई आप को चिंता करने की बिलकुल भी ज़रुरत नहीं,मैंने कल आपको पण्डित जी से बात करते सुना था,रात को मैंने बापू जी से बात भी कर ली है,आप तो  बस ये बता  देना कि क्या-क्या करना है ,बापू जी कह रहे थे,कि वह फजलू मिस्त्री को आपके पास भेज देंगे ,वो सब बढिया से बना कर तैयार कर देगा'',हुकमा बोला.
जग्गू   बोला,यूं तो मैं पिताजी से कह के सारा काम करवा सकता  हूँ पर बड़े भाई कि बातों से मुझे कल ऐसा लगा था कि बड़े भाई अभी कोई ज़्यादा खर्चा करना नहीं चाहते''.
''बड़े भाई,मन्दिर के स्टोर में दो कस्सी और दो फावड़े रक्खे हैं, आप कहो तो मैं उन्हें उठा लाता हूँ ,और हम सब मिल कर पहले अखाड़े  की खुदाई का काम शुरू कर देतें हैं''.घनश्याम भाई साहब बोल उठे.
मैं और राधे सब की बातें सुनते हुए बारी-बारी से सब का मुंह ताक रहे थे.
बैजनाथ जी हम दोनों की तरफ देख कर बोले,क्यों भाई,क्या बात है ,तुम दोनों ने कुछ नहीं कहना?''
राधे बोला,''भाई साहब ,मैं कस्सी फावड़े उठा लाऊँ?काम शुरू कर देते हैं.
बैजनाथ जी हंसने लगे और फिर मुझसे बोले,''हां भाई ,अब तू भी तो कुछ बोल''.
मैं बोला,''और कुछ बने या ना बने पर ऐसा कुछ तो करना ही पडेगा कि आते-जाते हुओं से अखाड़े की थोड़ी सी आड़ हो जाए .
असल में मन्दिर के सामने बहुत बड़ा और चौकोर  खुला आहता था,जिसके आखिर में दाईं ऑर कूआं था,  कुएँ को घेरे हुए एक खासा बड़ा चबूतरा था जिस पर चढ़कर कुएँ से पानी खींचा जा सकता था.और चबूतरे के बाद उसके दायीं ऑर  एक कोई  बारह फुट लम्बा और आठ फुट चौड़ा बरामदानुमा कमरा था जहां सब नहाने-धोने का अपना काम आराम से बैठकर करते थे,जिससे नहाते-धोते वक़्त पानी के छींटे कुएँ में नहीं पड़ते थे. मन्दिरसेलगीहुईआहते के  दायीं ऑर मन्दिर की धर्मशाला थी . धर्मशाला की  बाजू वाली दीवार और कुएँ के कमरे की बाजू वाली दीवार के बीच कोई पंद्रह-बीस फुट का गलियारा था. शहर कि तरफ से  मन्दिर में आने वाले सभी भक्त, जिनमें ज्यादातर  स्त्रियाँ  और लडकियां  ही होतीं थीं, इसी रास्ते से होकर आते थे. इसके अतिरिक्त आहते के बांयीं ऑर एक लम्बी और ऊंची दीवार थी जिसमें एक दरवाज़ा था जो जी.टी. रोड कि तरफ खुलता था,शहर से जी. टी. रोड कि तरफ जाने के लिए वो शोर्ट कट भी था इसलिए सारा दिन उधर से  लोगों का आना-जाना लगा रहता था.जब अखाड़े में हम लोग मालिश करते, कसरत करते या पहलवानी करते तो सब कुछ सब लोगों के एकदम सामने होता जो मेरीसमझ में बहुत गलत बात होती.
सबकी बातें सुनने के बाद बैजनाथ जी बहुत खुश हुए और बोले,''सुनों मेरे पहलवानों,तुम सब की बात सुनकर एक बात तो बिलकुल साफ़ हो गई कितुम सब भी अखाड़ा शुरू करने के लिए बहुत बेचैन हो, जो बहुत अच्छी बात है ,तो तुम्हारे उत्साह कि कद्र करते हुए कल शनिवार को हम अखाड़े कि शुरुआत करेंगे.कल शनिवार है यानि आधे दिन का स्कूल.कल दोपहर को एक बजे छुट्टी हो जायेगी तो दोपहर को ढाई बजे तक अपने-अपने माता-पिता से बाकायदा इजाज़त लेकर यहाँ पहुँच जाना.मैं आरती के बाद पण्डित जी से मिलकर उन्हें सब बताऊंगा और उनसे प्रार्थना करूंगा कि कल दोपहर तीन और चार के बीच अखाड़े का भूमि पूजन करवा दें ताकि         
रविवार को हम सब मिलकर अखाड़ा खोदने का काम कर सकें.ठीक है''?
सबने मिलकर नारा सा लगाते हुए कहा ,''ठीक है''. 


                    ( अखाड़े कि बाकी कहानी अगली किश्त ,बैजनाथ--४ में पढ़ना)


     
        

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