Saturday, February 19, 2011

बैजनाथ - 6

सैय्यद साहब से मेरा परिचय इसलिए था क्योंकि, वे मेरे सहपाठी शमसू उर्फ़ शमसुद्दीन के पिता थे. किसानों से गन्ना खरीदते थे और उसकी बहुत उम्दा खांड बना कर बोरियां भर-भर कर दूर दिल्ली के बाज़ारों में बेचने के लिए भेजते थे.शमसू व अन्य मित्रों के हवाले से मुझे यह भी मालूम था कि वह लोग बहुत ज़्यादा ( खानदानी /पुश्तैनी )अमीर /रईस थे. रईसी का यह आलम था कि घर में पहले से एक कार होते हुए उन्होंने एक और बिलकुल नई नीले रंग की चमचमाती हुई अम्बेसडर कार खरीदी थी जिसका दाम उस सस्ते जमाने में, जब देसी घी दो रुपये सेर आता था,चौदह हज़ार रुपये बताया जाता था.
आजकल तो दो क्या तीन-तीन कारों का भी एक घर में होना कोई बहुत ज़्यादा हैरानी की बात नहीं मानी जाती पर उन दिनों तो एक कार भी पूरे शहर में किसी-किसी के ही घर में होती थी.
मोटरसाइकिल भी कोई-कोई शौकीन रईस ही रखता था
आम लोग साइकिल खरीद कर भी अपने आप को बहुत खुशनसीब मानते थे.
मुझे याद है कि कुछ महीने पहले जब मेरे पिता जी नई साइकिल खरीद कर लाये थे तो उसे संभाल कर घर के अन्दर वाले बरामदे में रखा जाता था और  माँ  आते-जाते उस पर बड़े प्यार से हाथ फिराया करती थी.
खैर ,मैं बात कर रहा  था सैय्यद साहब की ,उन्हें शायरी  का भी बड़ा शौक था, बड़े-बड़े मशहूर शायरों को बुलवा कर ख़ास मुशायरे करवाया करते थे.एक बार मैं  भी गया था एक मुशायरे में अपने पिता जी के साथ.मुझे याद है कि मैंने खूब आनन्द लेकर सभी शायरों को सुना था.शायद उन्हीं दिनों से   
मेरी साहित्यिक अभिरुचि जागृत हुई थी.
ऐसे शरीफ और शान्तिप्रिय व्यक्ति के घर डाका पडा था.
डाकुओं के सरगना का नाम था ,'नियादर'
वैसे उसकी माँ ने उसका नाम रखा था ,अशरफ अली . 
 वो मुज़फ्फरनगर की अपने जमाने की एक मशहूर तवायफ का बेटा था,जिसने अपने बेटे को अपने पेशे की खुराफातों से दूर रखने के लिए अपने आप से ही दूर कर दिया था.अशरफ अली की परवरिश एक मिशनरीज़ होस्टल में हुई थी. लखनऊ के उस मिशनरीज़  स्कूल में दसवीं की पढ़ाई करते तक अशरफ निहायत शरीफ और मेहनती विद्यार्थियों में से एक था. तेज़ दिमाग तो वो हमेशा से ही था परन्तु ग्याहरवीं और बारहवीं की अपनी क्लास में हायर मैथ और फिजिक्स के सवालों को हँसते-हँसते कर देने वाला,अपने सारे टीचर्ज़ की आँखों का तारा अशरफ बारहवीं के फाइनल एग्जाम्स से ठीक पहले न जाने कहाँ गायब हो गया.
फिर अचानक एक दिन मिशन कम्पाउंड में फादर के पास एक पुलिस इन्स्पेक्टर पंहुँचा, वो मिशन में अशरफ के बारे में पूछताछ करने के लिए आया था,उसी से मालूम पडा कि लखनऊ के पास एक गाँव में जो 
बरात लूटी गयी थी ,उसके लुटेरों में अशरफ  भी शामिल था और उसने अपना नाम ,अशरफ से बदलकर ,'' नियादर '',रख लिया था.उस लूट में ,क्योंकि कोई मारा नहीं गया था और कम उम्र अशरफ उर्फ़ नियादर का वो पहला अपराध था इसलिए अदालत ने उसे सिर्फ एक साल के लिए ,जेल कि बजाय , बाल सुधार गृह में  भेज दिया था.बाल सुधार गृह में अशरफ तो कहीं गुम ही हो गया और नियादर पूरी तरह से मंज कर एक पक्का खिलाड़ी बन कर बाहर निकला.
नियादर अशरफ से नियादर क्यों और कैसे बना ,यह राज़ कभी कोई नहीं जान पाया.
उसके बाद डाके डालना और लूट-पाट करना उसके लिए मामूली काम हो गया,पर वो कभी पकड़ा न जा सका.
पिछले साल सर्दियों में शामली के एक रईस के घर उसने डाका डाला तो अगले दिन उनकी जवान-जहान बेगम ने कूएं में कूद कर जान दे दी थी .पता ये लगा कि नियादर ने उनके साथ ज़बरन मुंह काला किया था,जिसका गम वोह सह नहीं पाईं और कूएं में कूद कर एक कुकर्मी की बदमाशी की सज़ा सारे समाज को दे गयीं.
अब जहां लोग नियादर के नाम से ही  डरते थे वहाँ उस से नफरत भी बहुत करते थे.वो तो बस एक जीता-जागता पिशाच ही था.
इस वारदात के बाद पुलिस ने नियादर पर पूरे पांच सौ रुपये का इनाम भी घोषित किया था.
सब समझ सकते हैं कि उन दिनों पांच सौ रुपये कितने मायने रखते थे. 
वो इनाम मिला बैजनाथ जी को.
बैजनाथ जी रोजाना दिन ढले सात बजे लट्टू के घर उसके दोनों बेटों को जो की आठवीं और छठी क्लास में पढ़ते थे,ट्यूशन पढ़ाने जाते थे और रात को तकरीबन आठ-साढ़े आठ  बजे तक वहाँ से लौटते थे.बदले में लट्टू पूरे प्रेम से उन्हें अपनी गाय का आधा सेर दूध गर्म करके और मीठा मिला कर रोज़ पिलाया करता था.बैजनाथ जी इस सिलसिले  से भी सन्तुष्ट थे.
उस दिन बैजनाथ जी लट्टू के घर बहुत लेट हो गए. लट्टू की गाय ने बछिया जनी थी  और बैजनाथ जी देर रात तक गाय के प्रसव और फिर उसकी सेवा-सुश्रुषा में लट्टू की मदद करते रहे. उसके बाद सब काम से निबटकर लट्टू के घर के आँगन वाले कूएं पर उस जाड़े में नहा-धोकर फ्रेश हुए और एक गिलास चाय पीकर रात को कोई एक बजे लट्टू के घर से विदा हुए.
लट्टू की गली से तीन गली पार करने के बाद एक  बहुत पुराना इमली का पेड़ था,जिसकी वजह से उसके चारों ओर एक बहुत बड़ा आहता सा बन गया था जिसमें दिन के वक़्त बच्चे गुल्ली-डंडा खेला करते थे.  और उस आहते के बाद बहुत चौड़ी सैय्यदों की हवेली वाली गली थी जिसके दुसरे सिरे पर मस्जिद थी. गली में सैय्यदों की हवेली के अलावा कुल जमा दो घर और थे जो हवेली के आजू-बाजू ऐसे खड़े थे जैसे किसी नवाब के अगल-बगल फकीर और इन तीनों मकानों के सामने जुलाहों के मकानों की एक कतार पीठ किये खड़ी थी,यानी बसावट के नाम पर पूरी गली में कुल जमा यही तीन घर ही थे.
हवेली से पहले जो घर था उसमें मुंशी साहिब्दीन रहते थे, मुंशी जी बराए नाम ही मुंशी थे असल में तो वो सैय्यद साहब की पूरी ज़मींदारी की देखरेख के लिए ज़िम्मेदार थे और माना ये जाता था कि मुंशी साहिब्दीन  को चाहे रात के दो बजे जगा कर किसी भी हिसाब के बारे में पूछ लो मुंशी जी पूरा  आने-पाई तक का हिसाब बिना किसी हिचकिचाहट के मुंह-जुबानी सामने रख  सकते  थे.अच्छी खासी तनख्वाह के साथ-साथ यह घर भी मुंशी जी को सैय्यद साहब की ओर से रहने को मिला हुआ था जहां मुंशी जी अपनी तीन-तीन बीवियों और उनके अनेक बच्चों के साथ खूब मज़े में रह रहे थे. 
हवेली के बाद मस्जिद से कोना बनाता जो बड़ा सा घर था वो सैय्यद साहब का बहुत पुराना पुश्तैनी घर था और अब न जाने क्यों खंडहर कहलाता था, जबकि अभी भी उसमें सैय्यद साहब के घरेलू  नौकर लोग अपने-अपने परिवारों के साथ अलग-अलग हिस्सों में रहते थे.इस के अलावा सैय्यद साहब के गाय-भैंस और मुर्गियां भी इसी खंडहर कहलाने वाले हवेलीनुमा मकान में रहते थे.
सारा दिन इस मकान में अच्छी-खासी चिल्ल-पों मची रहती थी.
इस घर में घुसते ही ड्योढ़ी के दायीं ओर जो कमरा था उसमें हवेली के पहलवाननुमा दो चौकीदार बब्बन और शर्फु रहते थे.
रात को यह दोनों हवेली की ड्योढ़ी में चौकीदारी के नाम पर बारी-बारी सोते थे.
चौकीदारी के इस सिलसिले को शायद कभी किसी ने कोई ख़ास  गंभीरता से नहीं लिया था,बस बराए नाम ये चला ही आ रहा था.अगर कभी किसी ने इस सिलसिले पर ज़रा भी गंभीरता से सोचा होता तो वो फ़ौरन देख लेता कि ये दोनों पहलवान , सही मायने में चौकीदार तो क्या पहलवान भी कम और मोटे-थुलथुल हलवाई ज़्यादा नज़र आते थे, जो वक़्त पड़ने पर किसी का  मुकाबला तो क्या किसी के सामने ज्यादा देर ठीक से खड़े भी नहीं रह सकते थे.बब्बन में एक और बड़ी भारी कमी थी .जब शर्फु अपनी पारी पूरी करके सोने लगता था तो वो बब्बन को चौकीदारी के लिए जगाकर तब लेटता था. इधर बब्बन मियां अंगडाई लेते हुए उठते और हवेली के विशाल दरवाज़े में बनी छोटी खिड़की को खोलकर उसमें से होते हुए बाहर गली में आ जाते और धार मारने के लिए इमली वाले आहते कि तरफ हो लेते.धार से फारिग होकर बब्बन मियाँ गली में थोड़ी देर चहलकदमी करते और फिर खिड़की के रास्ते हवेली कि ड्योढ़ी में घुसते और खिड़की की कुण्डी लगा कर अपनी ड्यूटी पर बैठ जाते.
डकैती वाले दिन भी अपनी आदत के हिसाब से बब्बन खिड़की खोलकर उसमें से होता हुआ गली में आया और सीधा इमली के आहते की तरफ रुख किया.


( सारी कहानी काफी लम्बी होती जा रही है ,तो आज यहीं विश्राम लेते हैं,बाक़ी बहुत जल्दी पेश करूंगा. कृपया अपनी बहुमूल्य राय अवश्य लिखें, मुझे अच्छा लगेगा.धन्यवाद.)

बैजनाथ - 5

अगले दिन रविवार को अखाड़े का उदघाटन फिर न हो सका.
सुबह उठे तो शहर की जैसे फिज़ा ही कुछ और थी.
हुआ यूं की लट्टू   दूधिया जो रोज़ाना सुबह -सुबह दो मोहल्ले पार से हमारे घर दूध देने के लिए आता था, आया तो उस दिन भी, परन्तु दूध लेने के लिए उस  दिन मेरे द्वारा पतीला आगे बढाने पर उसमें दूध डालने की बजाये बड़े रहस्यपूर्ण तरीके से कहने लगा,''बल्लू भैया,डाका पड़ गया,''
मैं तब तक नींद की खुमारी में ही था पर जब उसकी बात सुनी तो जैसे बिजली का झटका सा लगा और मैं अनायास ही बोल पड़ा,''कब,कहाँ,कैसे और तुझे  कैसे पता ?
''लो बोल्लो बूज्झे   मन्ने कैसे बेरा , अरे म्हारी आपणी गली में सैय्यद साहब की हवेली पे ही तो गाज गिरी रात ने ,वो तो न्यूँ कहो आपणा बैजनाथ आ कूदया बीच में राम जी बन के ने ,अर नहीं तो के जाणे के-के गजब हो जाता''. 
पहले तो डाके की खबर ने ही मेरे होश उड़ा दिए थे  और फिर  जब उसने बैजनाथ जी का नाम लिया तो मैं तो जैसे सन्न ही रह गया.
 वैसे शहर में एक बैजनाथ और भी था, बैजनाथ हलवाई, पर वो तो मोटा , थुल-थुल बदन ,ढीला-ढाला और दब्बू सा इंसान था,वो कैसे डाके जैसी वारदात के  बीच में  बचाव करने के लिए कूदने का हौसला कर सकता था ?
फिर संभल कर मैंने उस से पूछा,''लट्टू,ठीक से बता ,क्या हुआ?''
लट्टू ज्यों-ज्यों बोलता गया मेरी तो जैसे आँखें ही फटती गयीं .
मैंने झट-पट लट्टू से पतीले में दूध लिया और उसे विदा कर के दरवाज़े की कुण्डी लगाई. मेरा इरादा जल्दी से जल्दी सैय्यद साहब की हवेली की तरफ जाने का था , सैय्यद साहब का बेटा शमसू  हमारी क्लास में  ही पढता था.मैं शमसू से मिलकर सारा वाकया तफसील से जानना चाहता था और बैजनाथ जी के पास पहुंचकर उन के नज़दीक  रहना चाहता था , मेरे अन्दर न जाने क्या-क्या घुमड़ रहा था.मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था सिवाय इसके  कि मुझे बस एकदम से सैय्यद साहब कि हवेली पर मौजूद होना चाहिए.
पर उस दिन  दूध लेने में और दिनों के मुकाबले काफी ज़्यादा देर लगती देख मेरी मां भी उठ बैठी थी.पिता जी शायद रोज़ कि तरह पहले ही बैठक वाले दरवाज़े से सुबह कि सैर को निकल गए थे.
मां के पूछने पर मैंने उसे जल्दी-जल्दी सारी बात बताकर अपना इरादा बताया तो वो चिन्तित हो कर बोली,''तू वहाँ जाकर क्या करेगा? घर बैठ,
अभी तेरे पिता जी लौटकर आते होंगे ,सारी बात उनसे मालूम हो जायेगी ''.
मैं बोला,''मां,मैं बस बैजनाथ जी से मिलकर आजाऊंगा.सच कहता हूँ फालतू देर नहीं करूंगा.मुझे जाने दे ''.
और बिना मां का जवाब सुने मैं वहाँ से सरपट भाग लिया. 
मैंने दौड़कर जुलाहों के दोनों मौहल्ले पार किये और फिर मस्जिद के दूसरी तरफ सैय्यद साहब की गली में पहुँचा.
वहाँ का  तो नज़ारा ही अलग था. सारी खतौली ही जैसे  उस वक़्त  उस गली में आ जुटी थी. सैय्यद साहब की हवेली के सामने से लेकर गली के दोनों नुक्कड़ तक लोगों की टोलियाँ खड़ी थीं, लोग ऐसे जमा-जमा के सारी बातें कर रहे थे कि जैसे सारा वाकया उनकी अपनी मौजूदगी में ही हुआ हो.
बातें तकरीबन वही थीं.
मैं भीड़ के बीच में से  निकलकर किसी तरह लोगों को ठेलता हुआ  हवेली में 
दाखिल होने की कोशिश कर रहा था कि मेरी नज़र अपने पिता जी पर पड़ी जो शायद सैय्यद साहब से मिलकर वापिस लौट रहे थे, भीड़-भाड़ ज्यादा होने के कारण उनकी नज़र मेरे पर नहीं पड़ी थी पर मैंने उन्हें देख  लिया और उनकी नज़र से बचने के लिए एक आदमी की ओट में हो गया.
    अन्दर सैय्यद साहब काफी ज्यादा लोगों से घिरे हुए बैठे थे और दरोगा जी उनसे इजाज़त   लेकर वापसी की तैयारी कर रहे थे.
मैं उधर से हटकर आगे को दालान में निकल गया तो मेरी नज़र शमसू उसके भाई फैज़ और बशीर पर पड़ी और फिर मैं तो ये देख कर हैरान रह गया कि घनश्याम भाई साहब ,राधे ,लून्जूऔर जग्गू  वहाँ पहले से ही मौजूद थे. बल्कि मुझे बहुत बुरा लगा कि बैजनाथ जी के साथ इतनी बड़ी बात हो गयी और सब जानते हुए इन लोगों ने मुझे खबर तक न की. पर उस वक़्त मैंने इस बात को नज़रंदाज़ किया और तरतीब से सारी हकीकत का पूरा सिलसिला जानने की कोशिश में लग गया.
दरोगाजी के कहने पर बाकी पुलिस वाले भीड़ को हवेली से बाहर करने लगे,शमसू  के कहने पर हम लोग दालान के एक कोने में बिछी दो चारपाइयों पर जम गए.
शमसू  अपने भाई-बंधुओं के साथ मिलकर अपने अब्बाजान और अपनी अम्मीजान के पास बैठे ख़ास मेहमानों की खातिरदारी में जुट गया तो मैंने घनश्याम भाई साहब की तरफ अपना ध्यान किया.
घनश्याम भाई साहब से मालूम हुआ कि सारी वारदात के वक़्त शमसू अपने अब्बूजी के पास था और फैज़ अन्दर अपनी अम्मीजी और बहनों के पास.
घनश्याम भाई साहब जो पूरा वाकया दोनों भाइयों कि जुबानी बार-बार सुन चुके थे, मुझे तरतीब से एक-एक बात बताने लगे.
उन्हीं कीजुबानी मालूम हुआ कि बैजनाथ जी को उन की मरहम-पट्टी के लिए मुज़फ्फर नगर जो खतौली से चौदह की. मी. की दूरी पर है वहाँ जिले के मुख्य हस्पताल ले जाया गया है.
सारी बातें सुनकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई सच्ची घटना नहीं कोई फ़िल्मी कहानी सुन रहा होऊँ .
अचानक बाहर बैठक में हलचल  हुई , मालूम पडा कि  सैय्यद साहब अपनी नई अम्बेसेडर कार में बैठकर बैजनाथ जी को मिलने मुज़फ्फरनगर जा रहे हैं. 

(सारा सिलसिला काफी लम्बा है ,इसलिए उसे तफसील से अगले भाग में सुनाऊंगा. तब तक के लिए राम-राम)







Sunday, February 6, 2011

बैजनाथ-4

 बैजनाथ जी  जब सब बात करके उठने लगे तो हुक्मे ने उन्हें टोक दिया,बोला,''बड़े भाई, मैं कुछ पूछना चाहता हूँ ,यदि आपकी इजाज़तहोतो?''
बैजनाथ जी वापस बैठते हुए बोले,हाँ-हाँ , हुकम चन्द,इसमें इजाज़त वाली क्या बात है? पूछो क्या पूछना चाहते हो ?''
हुकमा बोला,''बड़े भाई, जब आपने अखाड़े की तैयारी की बात की तो मैंने आप से निवेदन किया था कि मेरे बापू जी अखाड़े का सारा काम करवाने को तैयार हैं और हमारा मिस्त्री आकर सारा काम  आपके निर्देशानुसार अच्छी  तरह से जल्दि से जल्दि पूरा कर जाएगा,पर आपने मेरी बात का कोई उत्तर  ही नहीं दिया, क्या आप इस बात से खुश नहीं हैं,क्या यह बात अपने बापू जी से करके मैंने कोई गलती कि है ? कृपया बताइये , मैं बहुत परेशान हूँ.''
बैजनाथ जी हंसने लगे,बोले,'' यूं तो मैंने निरंजन कि बात का भी कोई जवाब नहीं दिया ,तो क्या मैं निरंजन से भी नाराज़ हूँ ? ना तो मैं किसी की किसी बात से नाराज़ हूँ,और ना ही कभी नाराज़ होता हूँ , और फिर , तुम सब  तो मेरे लिए छोटे भाई की तरह  हो, तुम से तो नाराज़ होने का सवाल ही नहीं पैदा होता. जहाँ तक तुम्हारी बात का सवाल है तो तुम्हारी बात का जवाब जग्गू ने दिया था पर शायद उसकी बात पर तुमने कोई ख़ास ध्यान  नहीं दिया''.
''जग्गू तो खर्चे की बात कर रहा था,जब सारा खर्चा बापू जी करने को तैयार हैं तो फिर क्या दिक्क़त है?''
''तुमने जग्गू  की बात पर ध्यान दिया हो तो तुम्हें याद होगा कि वह भी  तुम्हारी तरह अपने पिता जी से कह कर पूराकामकरवानेकोतैयारहै,इस के अलावा निरंजन रेडियो लाना चाहता है और पण्डित जी मन्दिर की कमेटी वालों से  कह कर सारा काम करवाने को तैयार हैं, पर  बेटा, तुम सब अभी बच्चे हो इसलिए जो कुछ मैं अभी इस बारे में कह रहा हूँ  वो  शायद पूरी तरह  अभी तुम सब की  समझ में ना आये ,इसलिए इस वक़्त  बिना कोई और बात  सोचे-समझे सिर्फ मेरी एक बात अपने-अपने दिमाग में बिठा लो कि मैं यह अखाड़ा बिना किसी की मदद लिए सिर्फ और सिर्फ तुम सब के दम-ख़म पर ही बनाना चाहता हूँ. अब बताओ तुम सब का इस बारे में क्या ख्याल है ?'' 
''अगर ऐसा हो सकता है,तो यह तो सब से अच्छा है ,और हम सब जैसा आप कहेंगे करने को तैयार हैं.'' हुकमा खुश होकर बोला. 
''बड़े भाई, आपको एक बात और बतानी थी,'' निरंजन एकदम से बोला.
''हाँ भाई ,तू भी बोल .'' बड़े भाई ने कहा.
''वो क्या है कि जहाँ मैं,गुप्ता मास्टर जी के पास, रात को मैथ्स कि ट्यूशन पढने जाता हूँ वहीं शमसू ,उसका भाई फैज़ और मौलवी जी का बेटा बशीर भी ट्यूशन पढने आते हैं, तो रात को मैंने उन लोगों को भी अखाड़े के बारे में बताया था,वो तीनों भी  आपसे सीखने के लिए अखाड़े  में आना चाहते हैं,आज रात को वो मुझे फिर मिलेंगे, आप कहो तो उन्हें भी कल बुला लूं?''
निरंजन कि बात सुन कर बैजनाथ जी सोच में पड़ गए.
''क्यों बैजनाथ, किस सोच में पड़ गया बेटा, निरंजन कि बात का जवाब क्यों नहीं देता?''
ना जाने कबसे मन्दिर से निकल कर पंडित जी हम लोगों के पास आन खड़े हुए थे और चुप-चाप खड़े  हम लोगों कि बातें सुन रहे थे, अचानक से उन की आवाज़  सुन कर हम सब सिटपिटा से गए.
पर फिर थोड़ा संभलकर बैजनाथ जी बोले,'' पण्डित जी,आप तो मेरी चिन्ता का कारण अच्छी तरह से जान-समझ रहे हैं,मन्दिर के आहते में अखाड़ा होगा, और ये मेरे मुसलमान बच्चे भी बाकी बच्चों की तरह यहाँ  आकर कसरत आदि करना  चाहेंगे, जहां तक मेरा सवाल है मेरे लिए तो क्या हिन्दू और क्या मुसलमान सब बराबर हैं,पर डरता हूँ कि कल को कोई और कहीं कोई झमेला ना खडा करदे.''
''देख बेटा,ये खतौली है और यहाँ का ये रिकार्ड है कि चारों ऑर चाहे कितनी भी आग क्यों ना लगी हुई हो यहाँ कभी कोई दंगा फसाद नहीं हुआ, चाहे हिन्दू हों चाहे मुस्लिम यहाँ के लोगों में बहुत गहरा भाईचारा है.इसलिए इस बारे में तो  तू  बिलकुल ही निश्चिन्त हो जा.''
''पण्डित जी.आगे भी यही वातावरण बना रहे मैं यही चाहता हूँ.इंसान की बुद्धि कब किस बात पर बिगड़ जाए कुछ नहीं कह सकते इसलिए मैं सोचता हूँ कि अखाड़े का काम अभी कुछ दिन रोक लिया जाए और अखाड़ा मन्दिर की जगह और किस स्थान पर  बन सकता है यह देखा जाए .''
''यह भी  ठीक है,पण्डित जी कुछ सोचते हुए बोले,'' और एहतियात बरतने में कोई हर्ज़ भी  नहीं,अरे भाई ज़रूरी तो यह है कि अखाड़ा बने , और उस  से भी बढ़कर  ज़रूरी यह है कि लड़के-बाले वहाँ आकर कसरत करें ,शरीर बलवान बनाएं और आपस में हिल-मिल  कर रहना सीखें,अखाड़ा कहाँ बने ये कोई बड़ा प्रश्न नहीं है, तू फिक्र मत कर  मैं देखता हूँ कोई ना कोई दूसरी  जगह भी जल्दि ही  मिल जायेगी ''कह कर पण्डित जी निरंजन सेबोले ,''और निरंजन, अभी तू शमसू या और किसी से इस बारे में कुछ मत कहियो,''
सबने पण्डित जी से राम-राम की और वो अपने घर को प्रस्थान कर गए.
अगले दिन सुबह जब बैजनाथ जी कालेज अपनी ड्यूटी पर जा रहे थे तो उन्हें रास्ते में लून्जू के मामा, श्री राम किशन शर्मा, मिल गए ,शर्मा जी मन्दिर से दर्शन आदि करके लौट रहे थे .
 बैजनाथ जी ने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया तो ,
शर्मा जी खुश होकर कहने लगे,''लो बोल्लो मैं  कहूं राम-राम बैज नाथ राम-राम, जीता रह भाई,अरे आजकल तो सब तरफ तेरे ही चर्चे  हैं , जिसे देखो तेरे ही गुण गावे है अर ये छोरे तो के कव्हैं हैं,तेरे दिवान्ने  ही हो रहे हैं,म्हारा निरंजन बतावै था के  तू इब शहर में भी अखाड़ा शुरू करेगा ,लो बोल्लो मैं कहूं घणीं  ऐ ख़ुशी हुई मन्ने तो  ये जाण  कै.''
 छः फुट से भी ऊपर निकलते क़द वाले शर्मा जी एकदम इकहरे बदन के खुश मिजाज़ आदमी थे.हर फिकरा बोलने से पहले ,''लो बोल्लो मैं कहूं,''
लगाने की उनकी आदत थी और सब उनकी इस आदत से परिचित भी थे.
उनको बीच में ही टोकते हुए बैजनाथ जी बोल पड़े,'' अखाड़ा तो आप के आशीर्वाद से शुरू हो जायगा पर कोई ढंग की  जगह भी तो मिले.''
''लो बोल्लो मैं कहूं, जगह का कौन सा तोड़ा है, नीयत साफ़ होणी चाहिए अच्छे काम के लियो भतेरी जगह.''
''आपकी निगाह में कोई अच्छा  स्थान है तो बताइये ''बैजनाथ जी बोले.
'' लो बोल्लो मैं कहूं   सथान तो  अच्छा ऐ  अच्छा है,मैं निरंजन तै  सारी कहाणी सुण चुका हूँ  अर सारी बात  सुण कै ही कह रह्या हूँ, तू अभी मेरी गैल्यां चाल पड़ मैं तन्ने अभी सथान  भी दिखा  दूंगा अर तेरी तसल्ली भी करा दूंगा.'' शर्मा जी ने कहा 
''पर मैं तो अभी कालेज  जाने   के लिए  निकला था,शर्मा जी,अगर आप कहो तो शाम को जगह देख लेंगे.''
''लो बोल्लो मैं कहूं कौन सा दूर जाणा है, मन्दिर के सामने जी.टी. रोड के दूसरी तरफ लोहे वालों की दुकानों के बीच से जो गली जा रही है,बस वहीं तक तो जाणा है , सथान देख के तू उधर से ही कालेज चला जाइयो.''
पर उधर कौन सा स्थान है, उधर तो छज्जू माली के  सब्जी  के खेत ही हैं.'' बैजनाथ जी कुछ सोचते हुए से बोले.
''लो बोल्लो मैं कहूं,सथान का सारा नक्शा यहीं खड़े-खड़े खींचेगा के? लो बोल्लो  मैं कहूं जी. टी रोड ही तो पार करनी है, कौन सा दिल्ली जाणा है.''
बैजनाथ जी ,''चलिए'',कहते हुए शर्मा जी के साथ हो लिए.        
मन्दिर का आहता पार कर के  दोनों ने जी. टी. रोड की तरफ जाने के लिए छोटा दरवाज़ा पार किया तो जुम्मन नाई के दर्शन हुए.
दोनों को देखते ही जुम्मन ने खीसें निपोरीं और लम्बा सलाम अर्ज़ किया.
''आदाब बजा लाता हूँ हजूर,और सरमा  जी, क्या बात आज  आप खुद ही दाढ़ी बनवाने चले आये  और वो भी इतनी जल्दि ,मैं तो रोज़ की तरह दुकान पे हाज़िर होने ही वाला था.''  


''लो बोल्लो मैं कहूं, अबे जुम्मन, इस तरफ आणे का मतलब क्या सिरफ़ तेरे पास आणा ही है,अबे क्या हर आते-जाते को मूंडेगा?''
बेचारा जुम्मन खिसिया के रह गया तो बैजनाथ जी ने बात बदलते हुए कहा,''जुम्मन भाई,हम लोग ज़रा सामने वाली गली में किसी काम से जा रहे थे,आपसे बाद में मिलते हैं ''     
जुम्मन अपना पहले से ही तेज़ उस्तरा फिर से तेज़ करने का अभिनय करने लगा  और ये दोनों जी. टी. रोड पार करके सामने वाली गली में जा घुसे.
गली के दोनों तरफ जी. टी. रोड की तरफ मुंह बाए  लोहे वालों की बड़ी-बड़ी दुकानें थीं और दुकानों के पीछे से जो खेतों का सिलसिला शुरू होता था तो वो, दुकानों से कोई पांच किलोमीटर दूर से गुज़र रही, रेल की पटरियों तक जा  कर ही दम लेता था.ये गली दुकानों के बीच की कोई पचास फुट की दूरी तक ही पक्की थी उसके बाद ये एक कच्चे रास्ते की सूरत में बदल जाती थी जिसके दोनों तरफ सरकंडों के घने झुण्ड उगे हुए थे.जब तेज़ हवाएं सरकंडों के  इन घने  झुंडों से होकर गुज़रतीं तो ऐसा लगता जैसे कोई बूढ़ी औरत आवाज़ दबाकर ऊँ-ऊँ करती लगातार रो रही हो.  अन्धेरा होने के बाद वैसे भी उधर से अकेले  जाने में  मेरा तो दम ही निकलता था.   
रास्ते के दायीं ऑर शुरू में  छज्जू माली का पपीतों के पेड़ों का  छोटा सा बाग़  था और उसके आगे उसके  और उसके दूसरे नातेदारों के पांच-छः सब्जी के खेत थे.बाग़ से पहले एक बड़ा कुआ भी था जिस में  से पानी निकालने के लिए रहट  चलता था.रहट को चलाने के लिए छज्जू माली का बड़ा पोता बैल को जोत कर उसे हांका करता था. चलते-चलते जब बैल धीमा हो जाता तो लड़का टिटकारी मारता और बैल समझ जाता कि मालिक पीछे है और बिना तेज़ चले छुटकारा नहीं है तो बिचारा बैल फिर तेज़-तेज़ चलने लगता.कुएँ के पास ही बैल के लिए और रहट का सामान रखने के लिए एक काफी बडासा कमरा था जिस में  सर्दियों में रखवाले सोते भी थे.        
इसी कमरे कि बगल में खाली ज़मीन का एक अच्छा-खासा बड़ा टुकडा था जिस पर रहट कीटूटी-फूटी बाल्टियां और दूसरा कबाड़ बिखरा पड़ा था.
ज़मीन के इस खाली टुकड़े के पास पहुँच कर शर्मा जी रुक गए और बोले,
'' लो बोल्लो मैं कहूं ,देख भाई बैजनाथ,इस तरफ जो यह ज़मीन  है वो सारी मुन्सिपल बोर्ड की है और छज्जू और उसके रिश्तेदारों ने पट्टे पर ली हुई है.यह जो खाली जगह है ये शुरू से ही ऐसे ही खाली पड़ी है.इस में से थोड़ी जगह छज्जू के कबाड़ के लिए छोड़ कर थोड़ा आगे सरक कर तू अपना अखाड़ा जमा ले.''
''जगह तो बहुत मौके की है पर शर्मा जी ,छज्जू या उसके किसी रिश्तेदार को इस से ऐतराज़ हो सकता है.आखिर ज़मीन का मामला है.''
लो बोल्लो मैं कहूं ऐतराज़ का के मतलब ,तू कौण सा  अपनी खातिर कब्जा      
जमान खातर  आवेगा अरै बालकां ने खेलना है उस में के ऐतराज़?''
इतने में इन दोनों को वहाँ आया देख छज्जू माली का बेटा जो खेतों से मूलियाँ उखाड़ रहा था वहीं आ गयाऔर शर्मा जी को हाथ जोड़ प्रणाम कर बोला,''धन्न भाग  म्हारे,शर्मा जी,जो आज आपने म्हारे खेतां तक आण  की मेहरबानी की ,हुकम करो के सेवा करूँ, बापू तो अभी-अभी थारे आगे-आगे लुहारां के घर गया है ,कुछ दरांती और खुरपे ठीक कराने  थे.''
शर्मा जी ने बैजनाथ जी की तरफ इशारा करते हुए छज्जू के बेटे को सारी बात समझाई और फिर उस से उसकी राय पूछने लगे.
''शर्माजी ,बात तो आपकी ही सही जैसी है पर बिना बापू ते बूझे आप जाणों   मैं कुछ नहीं कह सकता .''
''लो बोल्लो मैं कहूं ,हम कूण सा अभी अखाड़ा जमा रहे हैं, तू अपणे बापू से 
बूझ रखियो ,थारी सब की बात ऊपर रखन खातर  अर थारी इज्ज़त  करण
खातरही तो  थारी   इजाज़त मांगें हैं .''
'' मैं सब जाणूशर्मा जी , हम आप से बाहर कोन्नी,आप खातिर जमा रखो मैं जल्दि आप की दुकान पे पहुँच के आप को खबर करूंगा ''.  
''ये क्या शर्मा जी,आप तो कह रहे थे कि यह बोर्ड कि जगह है इसलिए कोई झमेला नहीं होगा पर आप तो ढके-छुपे एक तरह से उसे धमका ही रहे थे,ऐसे डरा-धमका कर अखाड़ा बनाना मुझे अच्छा नहीं लगता,आप मेरी बात का बुरा मत मानियेगा,मैं माफ़ी चाहता हूँ.'' वहाँ से लौटते हुए रास्ते में बैजनाथ जी बोले.
''लो बोल्लो मैं कहूं , इस में धमकाने  वाली कौण सी बात हो गई, तू छोड़ सारी बात्तां ने अर धपेरे जब कालज से वापस आवे तो अपणे चबारे पे ना जाके म्हारी दुकान पे आ जाइयो,वहीं तेरे सामणे सारी बात करवा दूंगो.''
   दोपहर को छुट्टी के बाद जब बैजनाथ जी शर्मा जी कि दुकान पे पहुंचे तो वहाँ तो अच्छा-खासा मजमा लगाहुआ था,शर्मा जी के पास कुर्सियों पर पण्डित जी और बोर्ड के सेक्रेटरी साहब बैठे थे और दुकान के बाहर एक बेंच पर छज्जू माली  बैठा था.
बैजनाथ जी को आता देख छज्जू  हाथ जोड़ कर खडा हो गया .
बैजनाथ जी ने उसके हाथ पकड़ लिए और बड़े प्यार से बोले,''छज्जू काका,मैं तो आपके बड़े पोते से कुछ ही बड़ा हूँ ,फिर मेरे आगे हाथ जोड़ कर मुझे क्यों शर्मिन्दा करते हो.''
''वो तो सब आप लोगन का बड़प्पन है जो इतना  मान-सामान देते हो बाकी हम तो आप लोगन कि परजा हैं.''छज्जू बोला.
''लो बोल्लो मैं कहूं,छज्जू ,छोड़ ये सब बातें और बैजनाथ को साफ़-साफ़ सारी बात कह दे जिस से उसके मन में कोई भरम ना रह जाए.''
छज्जू कुछ बोले उस से पहले ही पण्डित जी बोल उठे,कहने लगे ,''देख ले बैजनाथ इस को कहते हैं जहां चाह वहाँ राह.तेरे अखाड़े के लिए ना तो छज्जू को कोई ऐतराज़ है और ना ही सेक्रेटरी साहब को.अरे ये अपना छज्जू तो  एक ज़माने में माना हुआ पहलवान होता था ,बेचारा एक रात को छत से गिर के अपनी टांग तुडवा बैठा था तबसे इसे  पहलवानी क्या अखाड़े का रास्ता भी छोड़ना पड़ा.''
''अरे पण्डित जी, छोडो पुरानी बातें और कल सूरज चढ़े बजरंगबली के नाम का परसाद बंटवा दो , और जम जाने दो अखाड़ा.'' छज्जू जैसे  मस्ती में झूम उठा. 
बैजनाथ जी ने आगे बढ़कर छज्जू को अपने कन्धों पर उठा लिया और लगे ख़ुशी में नाचने.
राह चलते लोग भी रुक कर नज़ारा देखने लगे.छज्जू ने बैजनाथ जी को बड़ी मुश्किल से रोका और उनके कन्धों से उतर कर हाथ जोड़ कर सेक्रेटरी साहब से बोला,''सरकार,जो बखत पण्डित जी बतावें उस बखत कल सबेरे आप भी  पधारें , कल इतवार भी है छुट्टी का दिन तो कल  ही अगर  अखाड़े का मुहूर्त हो जाए तो सब को सुभीता भी रहेगा''
सेक्रेटरी साहब बोले ,''मैं ठीक वक़्त पर ज़रूर पहुँच जाऊंगा.''
''लो बोल्लो मैं कहूं,मन्ने तो सारा दही जमाया अर मन्नैं ही कोई बूझ भी ना रह्या,वाह भाई वाह यो घंड़ी चोखी रही ''. 
शर्मा जी कि बात पर खूब ज़ोरों का ठहाका गूंजा और उसके बाद पण्डित जी बोले ,''कल सुबह दस बजे का टाइम ठीक रहेगा,तब तक धूप भी खिल चुकी होगी ,सब आराम से आ जायेंगे तब भूमि पूजन करवा के बजरंगबली के नाम का प्रशाद भी बंटवा देंगे और अखाड़े का मुहूर्त भी करवा देंगे.''
शाम को बैजनाथ जी ने यह शुभ समाचार हम सब को सुनाया और हम सब को अगली सुबह अखाड़े कि जगह पर ठीक आठ बजे पहुँच जाने को कहा.
मुझे अच्छी  तरह से याद है कि  यह सब सुन कर मैं इतने अधिक उत्साह में था कि उस रात मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई थी. 
मेरे लिए यह एक बिलकुल नया अनुभव होने वाला था.


(तो यह हुई अखाड़ा कहाँ बने इसकी कहानी.अब आगे कि बात बैजनाथ-5  में पढेंगे.तब तक के लिए राम-राम.)