Friday, March 18, 2011

बैजनाथ--10

सैय्यद साहब के निर्देशानुसार शमसू ने फोन करके पुलिस थाने में तुरन्त इत्तला कर दी थी.

इत्तफाक से उन दिनों खतौली में जो थाना इंचार्ज थे,उनका नाम भी बैजनाथ ही था.दरोगा जी बड़े नेक, मेहनती और न्यायप्रिय पुलिस आफिसरथे.उनके इन्हीं गुणों के कारण जनता उनकी दिल से इज्ज़त करती थी.


उस रात दरोगा जी थाने के कामों से जल्दी छुट्टी पाकर आराम से जल्दी ही सो गए थे.अगले दिन रविवार था,यानी कोर्ट-कचहरी की छुट्टी.अतः उनका मन भरपूर नींद सोने का था.वैसे भी  भरपूर नींद और पूरा आराम, पुलिसवालों को मुक्क़दर से ही नसीब होता है.भरपूर नींद उस रात भी दरोगा जी के मुक्क़दर में नहीं थी.


रात को डेढ़ बजे से थोड़ा ऊपर का समय हुआ होगा जब सिर्फ कच्छे-बनियान पर काला कम्बल लपेटे,  घबराए हुए, थाने के मुंशी लाल सिंह ने उन्हें झिंझोड़ कर गहरी नींद से जगाया.


लाल सिंह ने जल्दी-जल्दी क्या कहा, नींद की खुमारी के कारण पहले तो दरोगा जी के  पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा पर फिर जब   ''डाका'',  '' नियादर ''  और   ''एक आदमी की मौत ''  आदि शब्दों ने उनकी चेतना पर एक-एक कर के टकराना शुरू  किया तो दरोगा जी की नींद की खुमारी जैसे हवा में काफूर बनकर उड़ गयी और वो अपने बिस्तर पर संभल कर बैठ गएऔर उन्होंने लाल सिंह से सारी बात ब्यौरे-वार फिर से सुनी .


सैय्यद साहब की हवेली में नियादर और उसके साथियों ने घात लगाई है,जहां ये बात घबराहट पैदा करने वाली थी वहीं ये जानकर  उन्हें थोड़ी राहत मिली कि जो आदमी मारा गया था वो एक डाकू था, सैय्यद साहब के घर का कोई सदस्य नहीं.


पर वो एक कहावत है ना ,  ''शिकार के बखत कुतिया हगाई,'' 


(यानी ऐन ज़रूरत के वक़्त ज़रूरी चीज़ का गायब पाया  जाना .)


ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति आज थाने की थी,थाने की सरकारी जीप मिस्त्री के पास मरम्मत के लिए आज शाम को ही भेजी गयी थी , उनकी मोटर-साइकिल पर थाने का हवलदार एक सिपाही को साथ लेकर दिन में तहसील गया था,जहां से वापसी पर उन्होंने तहसील के पास वाले एक गाँव में भी जाना था.उस गाँव में एक गैर-ज़मानती वारंट की तामील होनी थी.लगता था कि जिस आदमी के नाम वारंट था वो मिला नहीं था और दोनों जने  उसकी इंतज़ार में रात भर के लिए वहीं उसी गाँव में रुक गए थे और कल  किसी समय दिन से पहले वो लौटने वाले नहीं थे.


यानी इस वक़्त थाने में ना तो जीप उपलब्ध थी,ना उनकी मोटर-साइकिल और  कोढ़ में खाज ये कि थाने में सिपाही भी इस वक़्त  सिर्फ पांच  ही बचे थे क्योंकि दो  सिपाही पहले से छुट्टी पर भी गए हुए थे .


क्योंकि कम से कम एक सिपाही का थाने में रहना ज़रूरी था,दरोगा जी ने मुंशी लाल सिंह को तो थाने में छोड़ा और खुद जल्दी-जल्दी बाकी चार  सिपाहियों को साथ लेकर साइकिलों पर  ही मौकाए वारदात ,सैय्यद साहब की हवेली , की तरफ जाने की तैय्यारी करने लगे.


शर्फु होश में तो आ गया था,पर कमीनों ने बड़ी जोर से उसके सर पर चोट मारी थी जिसकी वज़ह से  उसका सर मारे दर्द के फटा जा रहा था, इसीलिए जब बब्बन ने हवेली में अन्दर वाले भाग में सैय्यद साहब के पीछे जाने की जिद की तो वो कुछ ना बोल सका,बस अपना सर थामे उकडू बैठा रहा, परन्तु बब्बन के जाने के कुछ ही समय बाद जब पहले बब्बन की ललकार फिर गोली चलने की आवाज़ और फिर बब्बन की दिल-दहला देने वाली चीख,ताबड़तोड़ आगे-पीछे सुनाई दीं तो जैसे उसके शरीर में बिजली का करंट ही दौड़ गया,और वो पास में रखी अपनी लाठी उठाकर तुरंत खडा हो गया और बिना आगा-पीछा सोचे हवेली के अन्दर बब्बन की चीख की दिशा में लपक लिया.

लट्टू सिंह और शमसू ,दोनों  एक पल को तो एक-दुसरे का मुंह ही ताकते रह गए पर फिर वो दोनों भी शर्फू के पीछे लपके.


अन्दर का खौफनाक नज़ारा  देखकर तीनों के मुंह फटे के फटे रह गए ,
शमसू दौड़कर सैय्यद साहब से जा लगा.


लट्टू एक बार बब्बन की लाश के पास ठिठका पर फिर वो लहुलुहान बैजनाथ जी की तरफ दौड़ा.लट्टू की तरफ देख कर बैजनाथ जी के ज़ख़्मी चेहरे पर एक मुस्कराहट उभरी पर मुस्कराने जैसे छोटे से काम से ही उनके चेहरे के ज़ख्मों में ऐसी टीस उठी कि मुस्कराहट के स्थान पर उनका चेहरा पीड़ा से भर गया.


शर्फु दौड़कर  बब्बन के मृत शरीर के पास पहुंचा, बब्बन की छाती से भल-भल करता खून उबला पड़ रहा था,और उसके आस-पास की ज़मीन लाल होती जा रही थी. शर्फू को आज समझ में आया कि उसके अपने दिल में बब्बन के लिए कितना प्यार था,उसके कलेजे में एक हूक सी उठने लगी , वो बब्बन कि लाश के पास धप्प से ज़मीन पर बैठ गया और उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली. 


सैय्यद साहब ने शर्फु का कन्धा थप-थपाकर उसे सांत्वना दी और शमसू से 
थाने में खबर करने की बाबत पूछा.


कमरे के नज़ारे से सहमे शमसू ने उन्हें बताया कि उसने थाने में तुरंत खबर कर दी थीऔर पुलिस आती ही होगी. 


लट्टू को बैजनाथ जी को पानी पिलाता और संभालता देख सैय्यद साहब ने शमसू को रफीक का चाकू थमाया और उससे सब की रस्सियाँ काटने को कहा और खुद  सामने वाले अपनी अम्मी जी के कमरे की तरफ लपके.


अम्मी जी के कमरे की बाहर से लगी सांकल खोल कर सैय्यद साहब जब अन्दर घुसे तो नीम-अँधेरे कमरे में उन्हें कुछ नज़र ही नहीं आया, पर फिर उन्हें गों-गों की सी आवाज़ सुनाई दी.

सैय्यद साहब ने आगे बढ़कर जलते लैम्प की मद्धम लो को तेज़ किया तो कमरा रौशनी से भर गया.

अम्मी जी और शफ्फो बुआ दोनों एक साथ अम्मी जी के पलंग पर बंधी पड़ी थीं.दोनों के मुंह भी उनके दुप्पट्टे से बंधे हुए थे.


सैय्यद साहब ने दोनों के बंधन खोले और अपनी अम्मी जी के हाथ-पैर  सहलाते हुए उन्हें तस्सली देने लगे.कुछ भी कहो अम्मी जी का हौसला काबिले तारीफ़ था.




जब से डाकू उन्हें और शफ्फो को बांधकर,तिजोरी लूटकर कमरे की सांकल बाहर से लगा कर गए थे अम्मी जी के दिल की घबराहट बढती ही जा रही थी.रह-रह के तरह-तरह के बुरे-बुरे ख्याल  उनके दिलो-दिमाग को परेशान किये जा रहे थे.


सैय्यद साहब को सही सलामत पाया तो अम्मी जी के  चेहरे की रंगत ही लौट आई,उन्होंने बड़े प्यार से अपने पास पलंग पर बैठे सैय्यद साहब का चेहरा अपने दोनों हाथों में लिया और बेटे का  सर थोड़ा सा अपनी ओर झुका कर उनकी पेशानी पर  चूम कर उन्हें आशीर्वाद दिया और बोलीं,  ''नन्हे मियां,हमें दो घूँट पानी पिलाइए ,मरों ने दुपट्टे से ऐसा मुंह बांधा कि मारे प्यास के  हलक ही सूखा जा रहा है,''अम्मी जी सैय्यद साहब को नन्हे मियाँ कह के बुलाती थीं.


अम्मी जी को अपने हाथों से पानी पिलाते हुए सैय्यद साहब की निगाह सामने दिवार से लगी तिजोरी की ओर उठ गयी,चौपट खुली पड़ी खाली तिजोरी अपनी कहानी खुद कह रही थी.


कुछ घूँट पानी गले से उतार कर अम्मी जी ने पानी का गिलास सैय्यद साहब के हाथों से ले कर शफ्फो बुआ की तरफ बढ़ा दिया और उसे पानी पीने को कहा.


पानी का गिलास शफ्फो बुआ को पकड़ाकर  अम्मी जी पलंग से उतरती हुई सैय्यद साहब से बोलीं, ''नन्हें मियाँ, आप चलिए,पीछे-पीछे हम भी शफ्फो को साथ लेकर आती हैं,हमें बहु बेगम और बाकी सब बच्चों से भी मिलना है.''  




''अम्मी जी आप ज़हमत ना उठाएंऔर यहीं आराम करें,खुदा खैर रक्खे सब खैरियत से हैं और अभी ज़रा सी देर में आप को सलाम करने आप के पास यहीं हाज़िर होंगे.'' सैय्यद साहब अम्मी जी को बड़े कमरे में जाने से रोकने की कोशिश में बोले.




''नहीं नन्हें मियाँ,हमें रोकने की कोशिश भी मत करिए,हम वहीं जाकर सब से मिलेंगे.''


 अम्मी जी की आवाज़ की मजबूती से सैय्यद साहब समझ गए कि अम्मी जी को रोकने की कोशिश बेकार है तो बोले, '' जैसी आपकी मर्ज़ी,आइये हमारे साथ ही चलिए ''.


सैय्यद साहब की अम्मी जान कहने को अस्सी ईद के चाँद देख चुकी थीं परन्तु तना हुआ उनका इकहरा बदन और पाकीज़गी से दमकता  गुलाबी रंगत लिए उनका नूरानी चेहरा उन्हें किसी भी स्वस्थ प्रौढा से इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं ठहराता था.


सैय्यद साहब जब अम्मी जी और शफ्फो बुआ को साथ लेकर बड़े कमरे में पहुंचे तो सब के सारे बन्धन काटे जा चुके थे परन्तु कमरे में पड़ी तीन-तीन लाशों और ताज़ा गुज़रे सारे हालात  की दहशत सब के चेहरों पर साफ़ लिखी नज़र आ रही थी.


फैज़ के होठों से खून बहना बंद हो चुका था और मुंह अच्छी तरह से गीले कपडे से पोंछ दिए जाने  के बाद वो अब पहले से बहुत बेहतर नज़र आ रहा था, पर उसका निचला  होठ अभी भी  थोड़ा सूजा हुआ था .


सैय्यद साहब की बेगम और उनकी बड़ी बेटी दोनों बच्चों को गोद में लिए उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रहीं थीं,उनकी दोनों छोटी बेटियाँ बच्चों के पैर सहला रही थीं. 


सैय्यद साहब के दामाद मियाँ एक गीले कपडे से बहुत ही ऐतिहात से धीरे-धीरे बैजनाथ जी का लहुलुहान चेहरा पोंछने की कोशिश में लगे थे.


सैय्यद साहब ने शर्फु ,लट्टू,फैज़ और शमसू को ड्योढ़ी वाले कमरे में जाकर पुलिस का इंतज़ार करने को कहा और खुद बैजनाथ जी के पास पहुंचे.




कमरे के नज़ारे से रोमांचित अम्मी जी धीरे-धीरे दोनों बेहोश बच्चों की तीमारदारी में लगी अपनी बहु बेगम के पास पहुँचीं और उनके सर पर हाथ रख कर बेहोश बच्चों का और बैजनाथ जी का मुंह ताकते हुए ही बोलीं, ''नन्हें मियाँ ,किसी को भेजकर जल्दी से डाक्टर को भी तो बुलवाइए.''


'' बस अब भेजते हैं '',कह कर सैय्यद साहब ज्यों ही कमरे से बाहर जाने के लिए मुड़े ,हवेली के दरवाज़े पर ज़ोरों की दस्तक गूंजी.


'' शायद पुलिस आ गई है,हम देखते हैं, आप लोग अपने को संभालिये '' कहते हुए सैय्यद साहब तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गए.




दरोगा बैजनाथ और उनके चारों सिपाही जब बारी-बारी से दरवाज़े की खिड़की से होकर ड्योढ़ी में दाखिल हुए तो उन्हें शर्फु आदि के साथ अपने सामने सैय्यद साहब खड़े नज़र आये.


दरोगा जी के सलाम के जवाब में सैय्यद साहब ने उनसे कहा की पहले किसी एक सिपाही को भेजकर पास में रहने वाले डाक्टर भगत राम को जल्दी से जल्दी बुलवा लें और फिर सैय्यद साहब दरोगा जी का हाथ पकड़कर ड्योढ़ी वाले कमरे में ले गए.जहां शफीक नंगी हालत में बंधा हुआ बेहोश पडा था. 


शफीक की हालत देख दरोगी जी चौंके और बोले,'' ये तो बेहोश है, हमें तो बताया गया था कि एक डाकू मारा गया है.''


''एक नहीं तीन डाकू मारे गए हैं और दो बेहोश बंधे पड़े हैं एक ये आपके सामने और दूसरा ऊपर छत पर.'' और सैय्यद साहब ने दरोगा जी को जल्दी-जल्दी सारा वाकया बयान किया.


नियादर मारा गया है ,इस खबर को सुनकर  दरोगा जी ने राहत की एक लम्बी सांस ली और सैय्यद साहब से बोले, ''आप अन्दर ज़नानेमेंपहुँचिये,
मैं बाक़ी इंतज़ाम करता  हूँ ''.


पोलीस के पहुँचने के बाद हड़कंप सा मच गया.  


एक सिपाही पास में रहने वाले डाक्टर भगत राम को बुलाने भागा, दूसरा सरकारी अस्पताल के डाक्टर जैन को बुलाने अस्पताल की तरफ साइकिल लेकर दौड़ा ,खतौली में पहली बार इतनी बड़ी वारदात हो गई  थी.


बाहर गली में आस-पड़ोस की गलियों से निकल-निकल कर कम्बल में लिपटे लोग इकट्ठे होने शुरू हो गए थे.


हवेली से लगे खंडहर कहलाने वाले मकान में रहने वालों के कानों पर अभी तक जूँ भी नहीं रेंगी थी.सब जैसे घोड़े बेचकर सोये थे.


डाक्टर साहब के आने से पहले दरोगा जी बाक़ी दोनों सिपाहियों को लेकर ऊपर छत पर पहुंचे .


छत पर खुले आसमान के नीचे ठण्ड में बंधा पडा बेहोश नूरा , बेहोशी में ही ठण्ड से जकड़कर मर गया था.


बड़ी मुश्किल से दोनों सिपाही, लट्टू और शर्फु की मदद से नूरे की लाश नीचे ला पाए. फिर पाखाने से अंसार की लाश निकाली गयी.


दरोगी जी  दोनों सिपाहियों को साथ लेकर ज़नाने कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे और अन्दर आने की इजाजत मांगी.


सैय्यद साहब बाहर आकर दरोगा जी को अन्दर ले गए.


कमरे की चौखट पर खड़े होकर दरोगा जी ने अन्दर चारों ओर नज़र दौड़ाई, और फिर अन्दर  घुस गए.और हालात का जायजा लेने लगे.  


कमरे के फर्श पर पड़ी तीनों लाशें अभी भी गर्म थीं.दोनों बच्चों के चेहरे की रंगत पिली पड़ी हुई थी,अभी तक उन्हें होश नहीं आया था.


बैजनाथ जी के चेहरे का खून बहना बंद नहीं हुआ था.


जेवर और नकदी से भरे दोनों थैले अभी भी उपेख्यित से दरवाज़े के पास पड़े थे,जिन्हें उठाकर दरोगा जी ने सैय्यद साहब को पकड़ाकर संभालकर रखने को कहा.


कमरे की छत के हुक से बंधे लटक रहे रस्सी के टुकड़े हवा से धीरे-धीरे हिल रहे थे.


दरोगा जी अभी  सारे हालात का जायजा ले ही रहे थे कि भारी शरीर वाले डाक्टर भगत राम हाँफते-हाँफते आन पहुंचे.वो शायद अपने घर से ही दौड़ते  
हुए आ रहे थे.


कमरे में एक  नज़र डाल डाक्टर साहब सीधे लहुलुहान बैजनाथ जी की तरफ बढे,पर बैजनाथ जी ने उन्हें हाथ के इशारे से बीच में ही रोक दिया और इशारे से दोनों बच्चों की तरफ उनका ध्यान आकर्षित करवाया.


डाक्टर साहब ने एक बड़ी प्रशंसा भरी निगाह बैजनाथ जी पर डाली और बच्चों की ओर बढ़ गए.


सैय्यद साहब ने उन्हें बच्चों के छत से उलटा लटकाए जाने के बारे में और बाक़ी सब हालात के बारे में बताया.


बारीकी से मुआयना करने के बाद डाक्टर साहब ने दोनों बच्चों को बारी-बारी इंजेक्शन लगाए और सैय्यद साहब से बोले, '' घबराने की कोई बात नहीं है , बच्चे गहरी दहशत की वज़ह से बेहोश हैं,मैंने इंजेक्शन दिया है,अभी थोड़ी देर में इन्हें होश आ जाएगा,इन्हें कुछ बिस्कुट वगेरह खिला कर मैं इन्हें फिर से नींद का इंजेक्शन दूंगा ताकी सुबह तक ये ठीक हो सकें.'' कह कर डाक्टर साहब बैजनाथ जी के पास आये.


तब तक सरकारी अस्पताल के डाक्टर श्री जैन भी आन पहुंचे.


दोनों ने मिलकर बैजनाथ जी के ज़ख्मों का मुआयना किया.


बैजनाथ जी के दोनों बाजू,चेहरा और छाती सब बुरी तरह लहू-लुहान थे,


डा. जैन बोले,सैय्यद साहब, इस लड़के की हालत बहुत खराब है,इस के दोनों बाजुओं पर गहरे ज़ख्म हैं, छाती पर भी घाव हैं और बायाँ गाल तो अन्दर तक कट गया है,ज़ख्म बहुत लंबा भी है,जिसका खून बहना बंद नहीं हो रहा,ये तो कुछ ज़्यादा ही हिम्मती है वरना जितना खून इस का बह चुका है ये अब तक बेहोश हो गया होता.बड़े अफ़सोस की बात है, पर क्या करें, हमारे पास यहाँ इसके लिए ज़रूरी इंतजामात नहीं हैं,इसे जल्दी से जल्दी मुज्ज़फ्फर नगर जिला हस्पताल में पहुंचाना होगा.अगर जल्दी से चल पड़ें तो आधे घंटे के अन्दर ही हस्पताल पहुँच जायेंगे.


सैय्यद साहब का ड्राइवर नजीर अपने परिवार सहित साथ वाले खंडहर में रहता था, जहां वो घोड़े बेचकर सोया पडा था.गोली चलने की आवाज़ ने भी खंडहर की शान्ति भंग नहीं की थी.


परन्तु शर्फु ने जब नजीर को सोते से जगा कर सारा मामला समझाया तो वो बिना वक़्त गंवाए, हडबडाता हुआ बिस्तर से उठा, मुंह पर पानी के छींटे मारे और बिस्तर के सिरहाने रखी अपनी कमीज़ उठा कर तहमद में ही गैरेज की  तरफ भागा.


लट्टू सिंह बैजनाथ जी के साथ मुज्ज़फ्फर नगर जाना चाहता था,लेकिन दरोगा जी ने उसे साथ जाने की इजाज़त नहीं दी.दरोगा जी को उसका बयान भी तो लेना था.
डा.जैन का अंदाजा था कि रात के इस वक़्त चौदह की. मी. के इस सफ़र में तकरीबन आधा घंटा लग ही जाएगा,पर वाह रे नजीर,उसने जी.टी.रोड पर नयी एम्बेसडर कार ऐसे भगाई कि डाक्टर साहब अगला सांस बीस मिनट बाद हस्पताल में गाडी से उतर कर ही ले पाए. 


   सर्दी की उस हड्डियां गला देने वाली रात में  सारा प्रबंध कराने के लिए डा. जैन को थोड़ी भाग-दौड़ तो करनी पड़ी परन्तु उसके बाद बैजनाथ जी का इलाज सुचारू रूप से प्रारम्भ हो गया.


बैजनाथ जी का इलाज शुरू हो जाने के बाद पूरी तरह से संतुष्ट होकर डा. जैन जब वापिस खतौली पहुंचे तो चार बजने को थे,भोर होने में अभी तीन घंटे बाक़ी थे.अतः सैय्यद साहब को सारी स्थिति समझा कर  डा. जैन भी अपने घर लौट गए.


हवेली के बाहर गली में लोगों का मेला सा जुड़ गया था.गली में ज़मीन पर अपने ज़माने के मशहूर और खूंखार इनामी डकैत नियादर और उसके तीन साथियों की लाशें पड़ी थीं. एक सिपाही लोगों को लाशों से बार-बार दूर हटा रहा था.


अन्दर दालान में एक साफ़-सुथरी चादर में लपेट कर बब्बन का शव रखा गया  था ,सिराहने लोबान का धूंआ उठ रहा था और इतनी अल-सुबह मस्जिद से मौलवी साहब भी आने वाले थे. 


अन्दर ज़नाने में दोनों बच्चों को नींद का इंजेक्शन देकर डा.भगत राम जा चुके थे .


दरोगा  जी ने सब से पहले सैय्यद साहब और उनके परिवार वालों के बयान लिए.फिर शर्फु का नंबर आया.उसके बाद उन्होंने लट्टू सिंह को अपने पास बुलाकर सारी बातें पूछीं .


एक बजे के गए लट्टू सिंह चार बजे से थोड़ा ही पहले घर पहुँच पाए.परन्तु उनके घर पहुँचने से पहले ही उनकी यश-गाथा उनके घर पहुँच चुकी थी.


उनके प्रेम और लाड से भरी उनकी पत्नी ने लाख कहा कि सारी रात के जागे हो थोड़ा आराम कर लो. परन्तु लट्टू सिंह की आँखों के आगे रह-रह कर बैजनाथ जी का लहुलुहान चेहरा घूम रहा था इसीलिए वो सब गौओं को दुह कर ,सब जगह दूध बाँट कर जल्दी से जल्दी मुज्ज़फ्फर नगर हस्पताल में पहुँच जाना चाहता था.                                  




(अभी शायद इतना ही काफी होगा,बाकी ब्रेक के बाद.तो फिर राम-राम जी )







Sunday, March 6, 2011

बैजनाथ - 9


बैजनाथ जी ने ज़्यादा बात करना ठीक नहीं समझा और सैय्यद साहब को खामोशी से अपने पीछे -पीछे आने को कहा.

दोनों आगे-पीछे दबे पाँव दालान में दाखिल हुए और सामने बरामदे की तरफ बढे.बरामदे में पहुँच कर बैजनाथ जी ने सैय्यद साहब को रुकने का इशारा किया और खुद दायीं ओर वाले कमरे की दीवार के साथ लगे-लगे कमरे के दरवाज़े की तरफ सरकने लगे.
सामने सैय्यद साहब की अम्मी जान के कमरे का दरवाज़ा बाहर से कुण्डी लगा कर बंद किया हुआ था.अन्दर अम्मी जान और उनकी खिदमतगार शाफ्फो बुआ नजाने किस हालत में थीं .जो भी हो हालात को देखते हुए बैजनाथ जी ने पहले बड़े हाल कमरे की खबर लेना बेहतर समझा.
बड़े हाल कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच कर उन्होंने बहुत आहिस्ता से एक बार गर्दन आगे बढ़ाकर अन्दर झांका,अन्दर का नज़ारा देख कर एक पल को तो बैजनाथ जी जैसे सुन्न ही हो गए.पर  फिर उन्होंने अपने आप को संभाला और गर्दन पीछे करके सीधे खड़े हो गए.अन्दर का नज़ारा देख कर उन्हें अपने ऊपर नियन्त्रण रखना बहुत मुश्किल हो रहा था,  तेज़  सांस के कारण उनकी छाती धौंकनी की तरह उठ-बैठ रही थी और आँखें मारे क्रोध के जल कर लाल हो गईं थी.

बैजनाथ जी की यह दशा देखकर सैय्यद साहब भी डर गए और सरक कर उनके पास आन खड़े हुए.बैजनाथ जी बिना आवाज़ किये लम्बी-लम्बी सांसें भरते हुए अपने आप पर काबू पाने की कोशिश कर रहे थे.कमरे के अन्दर का नज़ारा उन की आँखों के आगे रह-रह कर कौंध रहा था. 

अन्दर हाल कमरे के बींचो-बीच छत के एक हुक से दो बच्चे उलटे  लटके हुए थे .ये दोनों शायद सैय्यद साहब की बेटी की औलादें थीं.बच्चे ज़िंदा भी थे या नहीं, बाहर से जानना मुश्किल था,पर एक बात पक्की थी कि  बच्चे यदि अभी ज़िंदा भी थे तो बेहोश ही थे,बाहर से तो कम से कम ऐसा ही नज़र आ रहा था.कमरे के आखिर में दो बड़े-बड़े पलंगों पर सैय्यद साहब की बेगमऔर उनकी दोनों बेटियाँ पेट के बल  बंधे हुए पड़े थे.पलंगों के साथ ही एक बड़ी खाट पर शमसू का बड़ा भाई फैज़ उलटा बंधा हुआ पडा था.उसके होठों से बह कर खून बिस्तर की चादर पर जमा हो कर सूख गया था, उसके चेहरे पर शायद काफी जोर की चोट मारी गयी थी जिसके कारण उसके होंठ फट गए थे और वो अभी तक बेहोश पडा था.  

सैय्यद साहब की बेटी और दामाद पलंगों के पाँव की तरफ दीवार के साथ लड़कियों की स्टडी कुर्सियों से ऐसे जकड कर बांधे गए  थे कि वो ज़रा भी हिलडुल नहीं सकते थेऔर मुंह पर बंधी पट्टी की वज़ह से मुंह से कोई आवाज़ भी नहीं निकाल सकते थे.

स्टडी टेबल और दोनों कुर्सियों के साथ दीवार से लगा एक दीवान पड़ा था जिस पर एक और जवान लड़की बंधी हुई पड़ी थी,ये शायद करीमन थी.

इन सब के अलावा अन्दर हाल कमरे में बैजनाथ जी को सिर्फ एक आदमी और दिखाई दिया था जो अपने चारों ओर  से बेखबर करीमन की चोली खोलने जैसे शैतानी काम में लगा हुआ था,जिसमें बंधे पड़े होने के बावजूद करीमन, बहुत ज़्यादा हिलडुल कर, उसे सफल नहीं होने देना चाहती थी,ऐसी हालत में मजबूर लड़की उसे कितनी देर रोक पाएगी,बैजनाथ जी ने सोचा.
और फिर उन्होने अपना मुंह अपने पास आन खडे हुये सैय्यद साहब के कान से साटाया  और उनके कान में फुसफुसाए,'' मेरे बुलाने पर अन्दर आ जाइयेगा.''
और खुद पंजों के बल घात लगाते हुए कमरे में  दिवार के साथ लगे   दीवान की तरफ बढे जहां वो  बदमाश करीमन की चोळी फाडकर  अपने चारों तरफ से बेखबर उस की छातियों में मुंह गडाए उस से ज़बरदस्ती करने की कोशिश में  मशगूल था.लड़की के हाथ-पैर और मुंह बंधे हुए थे,फिर भी हिल-डुल कर वो उससे बचने की अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही थी.

बैजनाथ जी बिना कोई आवाज़ किये उसके पास तक जा  पहुंचे और उन्होंने अपना दायाँ हाथ बढ़ाकर उसके सर के बाल पकडे और एक झटके से पीछे खींचा,उसकी शैतानी हरकत देखकर गुस्से के मारे उनकी आँखें लाल हो रही थीं और होठ फडफडा रहे थे,उन्होंने आव देखा ना ताव दोनों हाथों से उसकी मुण्डी पकड़ी और एक ऐसा झटका दिया कि उसकी गर्दन टूटने की आवाज़ बाहर खड़े सैय्यद साहब ने भी साफ़-साफ़ सुनी .

मरने के बाद भी रफीक की लाश के  चेहरे पर हैरानी के भाव साफ़ दिखाई दे रहे थे.

कडाक कि आवाज़ से घबरा कर सैय्यद साहब बिना बैजनाथ जी के बुलाये ही एक झटके से कमरे में आन घुसे,अन्दर का नज़ारा देखकर उनकी आँखें फटी कि फटी रह गयीं.
बैजनाथ जी ने लड़की के दुपट्टे से उसका खुला पडा सीना ढका और चाक़ू से उसके बन्धन काट दिएऔर सैय्यद साहब को रफीक का चाक़ू पकड़ा  कर  इशारा करते हुये जल्दी से पलंग पर चढ गये,सैय्यद साहब भी उनके पीछे -पीछे पलंग पर चढ गए और सबसे पहले बारी-बारी दोनों बच्चों की नब्ज़ टटोली,शुक्र है दोनों भाई -बहन ज़िंदा हैं ,धीमी चलती नब्ज़ को महसूस करते हुए  बैजनाथ जी ने सोचा और फिर दोनों ने  चाकू से बच्चों की रस्सियाँ काट डालीं  और  संभाल कर उन्हें पलंग पर लिटा दिया तब बैजनाथ जी ने सैय्यद साहब से उनके लिए पानी लाने को कहा और खुद दोनों के बंधन काटने  में लग गए.जब तक सैय्यद साहब बच्चों के लिए लोटे में पानी लेकर आये बैजनाथ जी उनके बन्धन चाक़ू से काट  चुके थे और बेहोश बच्चों के हाथ-पैर सहला रहे थे.  

सैय्यद साहब को बच्चों के पास छोड़ बैजनाथ जी बेहोश फैज़ की तरफ  मुड़े और उन्होंने फुर्ती से उसके बन्धन काट डाले और लोटे के पानी में एक कपड़ा भिगोकर उससे धीरे-धीरे फैज़ के होठों से खून साफ़ करने लगे.

''बच्चों को दो-दो घूँट पानी पिलाकर आप चाक़ू से बारी-बारी सब के बन्धन काटने की फिक्र करिए,मैं ज़रा फैज़ को संभालता हूँ.''बैजनाथ जी सैय्यद साहब को बोले.''पर ज़रा ध्यान रखियेगा कोई आवाज़ ना हो,इसका दूसरा साथी कहीं नज़र नहीं आ रहा .''

''इसका दूसरा साथी इन सब का बाप नियादर ही है,घर के सब लोग यहीं बंधे पड़े हैं तो वो भी यहीं-कहीं आस-पास ही होगा.''सैय्यद साहब नफरत भरे शब्दों में बोले.

 ''अंसार!!, अंसार!!,कहाँ मर गया नामुराद.''  तभी बाहर से धीमी किन्तु तीखी आवाज़ सुनाई दी और साथ ही किसी के इधर  कमरे कि तरफ बढ़ते क़दमों की आह्ट सुनाई दी,कोई उस कमरे कि तरफ ही बढ़ा आ रहा था.

 सैय्यद साहब अपनी बेगम  के मुंह की पट्टी खोलकर उसके हाथ के बन्धन काट चुके थे और उसके पैरों के बन्धन काटने  जा रहे थे कि आवाज़ सुनकर वहीं के वहीं रुक गए. 

बैजनाथ जी फैज़ के चेहरे को  भीगे हुए  कपडे से पोंछते हुए उसे होश में लाने की कोशिश कर रहे थे कि वो भी बाहर से आती आवाज़ को सुनकर एक बार को ठिठक गए और फिर उन्होंने सैय्यद साहब को वहींके वहीं पलंग की ओट में छुप जाने का इशारा किया और खुद तेज़ी से पीछे हट कर दरवाज़े की ओट में हो गए.
पर लाश ?रफीक की लाश का क्या करते ,वो तो किसी जगमगाते साइन बोर्ड की तरह आँखें फाड़े हैरानी से सामने की तरफ ताके जा रही थी.

उम्मीद से बढ़कर लूट का माल मिलने की ख़ुशी और शानदार कामयाबी पाने की अपनी ही धुन में मस्त नियादर कमरे की तरफ बढ़ा आ रहा था  परन्तु कमरे की चौखट पर पहुँचते ही अन्दर का नज़ारा देखकर  वो वहीं का वहीं थमक के खडा रह गया.उसे अपनी आँखों पे विश्वास ही नहीं हो रहा था लेकिन सामने पड़ी रफीक की लाश जैसे उसे मुंह चिढाये जा रही थी.

सीढियों के नीचे अंसार को ना पाकर उसे बहुत गुस्सा आया था कि हरामजादे से सबर नहीं हुआ था,और उसके आगाह करने के बावजूद अंसार सीढ़ियों की अपनी ड्यूटी  छोड़  बिना उसका इंतज़ार किये छोकरियों से  मज़ा लूटने  उनके  कमरे में पहुँच गया था.

लेकिन कमरे के अन्दर पड़ी रफीक की लाश,तमाम बंधनों से आज़ाद दीवान  पर बैठी अपने कपडे सम्हालती करीमन  और सब बन्धनों से मुक्त धीरे-धीरे कराहता फैज़ उसे कुछ और ही कहानी समझा रहे थे.

फिर जैसे नियादर सोते से जागा,उसने अपने हाथ में थामे हुए दोनों थैले दरवाज़े के पास ही ज़मीन पर रखे  और अपने पाजामे में खोंसा हुआ अपना तमंचा निकाल कर अपने हाथ में ले लिया.दरवाज़े के पीछे खड़े बैजनाथ जी देखते ही रह गए और चीते के जैसी फुर्ती से एक छलांग में नियादर खाट  पर पड़े फैज़  के पास जा पहुंचा और बायें हाथ से उसके बालों को पकड़ कर उसने ऐसा झटका दिया कि आधा-अधूरा होश में आता फैज़ दर्द के मारे बिलबिला उठा और फिर दोबारा से बेहोश होकर निढाल हो गया. 

फैज़ के सर को बड़ी बेदर्दी से  एक झटका देते हुए नियादर गुर्राया,''मैं जानता हूँ कि तुम जो कोई भी हो ,यहीं इसी कमरे में हो ,अगर इस लड़के  की  खैरियत चाहते हो तो फ़ौरन मेरे सामने आ जाओ वरना बिना वक़्त गंवाए मैं इसे अभी के अभी गोली मार दूंगा''. 

''नियादर,लड़के को छोड़ दे,वोज़ख्मी है, और मैं यहाँ हूँ .'' कहते हुए सैय्यद साहब दोनाली हाथ में लिए पलंग की ओट से बाहर होते  हुए उठ खड़े हुए.  

''आज तेरी खैर नहीं सैय्यद ,अंसार की बन्दूक नीचे छोड़ दे  और पीछे हो के दीवार की तरफ मुंह करके खडा हो जा,ज़रा भी होशियारी दिखाने की कोशिश की तो याद रखना तेरे लौंडे का भेजा उड़ा दूंगा,मैं हैरान हूँ  कि यह सब कारनामे तू अकेला कैसे कर गुजरा.''अपना तमंचे वाला हाथ सैय्यद साहब की तरफ तानता हुआ नियादर फुँफकारा.                                                                                                     

'' रुक जा हरामजादे--- ,चिल्लाते हुए कमरे के दरवाज़े से नियादर की तरफ अपनी लाठी ताने  बब्बन दौड़ा.                                                   

शर्फु,लट्टू यहाँ तक कि शमसू  के भी रोकने के बावजूद, अपने साथ बीते हालात से शर्मिन्दा,सारी बातों के लिए खुद को ज़िम्मेदार मानता, ग्लानि का मारा और क्रोध में उबलता,सैय्यद साहब का वफादार बब्बन किसी के रोके नहीं रुका था और अपनी लाठी संभाले चुपके से दालान के हालात का जायजा लेता हुआ बड़े हाल कमरे कि तरफ बढ़ आया था.
कमरे के अन्दर का नज़ारा देखकर तो उसका गुस्सा जैसे सातवें आसमान पर ही जा पहुंचा था और चिल्लाते हुए वो नियादर पर चढ़ दौड़ा था .  

बब्बन कि ललकार सुन नियादर बड़ी तेज़ी से पलटा और उसने अपनी तरफ भाग कर आते बब्बन पर तमंचा दाग दिया.गोली बब्बन की पसलियाँ  तोडती हुई उस के दिल के पार निकल गई,उस के मुंह से एक दिल दहला देने वाली चीख निकली जिसने सारी हवेली को हिला कर रख दिया और फिर एक खौफनाक खामोशी चारों तरफ फ़ैल गई. 
 शहीद होकर बब्बन जैसे अपनी सारी गलतियों को ही धो गया.

तभी नियादर कि नज़र अपनी तरफ झपट कर बढ़ते बैजनाथ जी पर पड़ी और उसने अपने हाथ का तमंचा खींच कर उन पर दे मारा .

जो  फुर्ती  नियादर ने बैजनाथ जी पर पत्थर कि तरह तमंचा फैंक कर मारने में दिखाई थी वो फुर्ती बैजनाथ जी नहीं दिखा पाए और सनसनाता हुआ तमंचा बैजनाथ जी कीआँखों के ठीक बीचोंबीच इतनी जोर से जाकर टकराया कि उनकी आँखों के आगे सितारे नाचने लगे.और कोई होता तो वहीं बैठ जाता परन्तु बैजनाथ जी ने अपने सर को इधर-उधर झटका और अपने को संभाल कर नियादर कि तरफ बढे.
                                                                                                                                                                                                       जब तक तमंचे की चोट से  बैजनाथ जी उबरे,  नियादर ने किरपाण जैसे लम्बे छुरे से उन पर हमला बोल दिया.                                                                                                                                                                       

दोनों के हाथ में छुरे थे और दोनों एक-दुसरे को मरने- मारने पर उतारू थे.
नियादर भयानक लड़ाका साबित हो रहा था,और उसका हर वार बैजनाथ जी को ज़ख़्मी और कमज़ोर किये दे रहा था.बैजनाथ जी का चेहरा और उनके दोनों बाजू नियादर के हमलों से लहू-लुहान हो रहे थे,पर फिर भी वो बिना मुंह से कोई आवाज़ निकाले  जी-जान से नियादर को काबू करने क़ि कोशिश में उस से जूझ रहे थे.

इतने में पीछे से सैय्यद साहब ने आकर बब्बन क़ि लाठी उठाई और घुमा के उसका वार नियादर क़ि खोपड़ी पर किया.

नियादर क़ि खोपड़ी चकरा गई,उसकी आँखों के सामने रंग-बिरंगे सितारे नाचने लगे और वो जहां का तहां खडा रह गया.

बैजनाथ जी ने अपने हाथ का चाक़ू फैंक दिया और आगे बढ़कर नियादर का छुरे  वाला हाथ थाम कर मरोड़ना शुरू किया, वो उसके हाथ से छुरा निकाल लेना चाहते थे,पर नियादर ने छुरा अपने हाथ से नहीं छोड़ा और बायाँ  हाथ बढ़ाकर दोनों हाथों का जोर लगाकर अपना छुरे  वाला हाथ बैजनाथ जी की पकड़ से छुडाने की कोशिश करने लगा.इतने में बैजनाथ जी ने उसे ज़मीन पर गिराने के लिए टंगड़ी मारी.

नियादर इतने जोर से ज़मीन पर गिरा कि उसके मुड़े हुए हाथ में थामा हुआ उसका छुरा उसके अपने ही जोर से उसकी पसलियों से होता हुआ उसके दिल के आर-पार हो गया.

सैय्यद साहब ने आगे बढ़कर बैजनाथ जी को थामा और उन्हें फैज़ के पास खाट पर लेट जाने को कहा,पर बैजनाथ जी लेटे नहीं बस  लेटे पड़े फैज़ के पास खाट पर  बैठ गए.
   (डकैतों से निपटारा तो हो गया पर कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई.
 आगे का हाल कहेंगे और पढेंगे आगे आने वाली किश्तों में .तब तक के लिए 
 राम-राम )

बैजनाथ- 8

यही सब बातें सोचते हुए बैजनाथ जी ने बड़ी सावधानी से पहली मंजिल से नीचे की ओर जाती सीढ़ियों का रुख कियाऔर बिना आवाज़ किये एक-एक करके सीढियां उतरने लगे.सीढ़ियों के मोड़ पर पहुँच कर वो रुक गए और अपने अगले कदम के बारे में सोचने लगे.
नीचे अंसार नाम का जो आदमी दोनाली लिए खडा था उस की तरफ से तो उन्हें  कोई अंदेशा नहीं था,उन्हें पूरा भरोसा था कि चाहे वो कितना भी चुस्त और फुर्तीला क्यों ना हो उसे वो बड़े आराम से काबू में कर सकते थे,पर इस अंसार के अलावा नीचे और कितने लुटेरे थे और वो कहाँ-कहाँ थे,और क्या कर रहे थे ये न उन्हें मालूम था और न ही इस वक़्त वो इन ज़रूरी सवालों के जवाब ढूँढने में जुट सकते थे.
उन्हें जो भी करना था जल्दी  करना था और बिना वक़्त गवांये तुरंत करना था.उन्हें इतना  तो अंदाजा था कि घर के मर्दों का वक्ती डेरा ड्योढ़ी के आजू-बाजू वाले दीवान खाने या  बड़ी बैठक में ही होगा जबकि औरतें और बच्चे अलग से किन्हीं दुसरे कमरों में होंगे. 
कहाँ होंगे, एक जगह होंगे या अलग-अलग कमरों में होंगे ये अभी मालूम नहीं हो सकता था.फिर तुरन्त उनके दिमाग में आया कि औरतें और बच्चे रात में चाहे कोई कहीं भी सोये हों पर इस वक़्त बदमाशों ने उन्हें ज़रूर एक जगह इकट्ठा करके रखा हुआ होगा.सारे हालात का अंदाजा लगाते हुए  उन्होंने  अंसार से  निपटने  के बाद पहले  ड्योढ़ी कि तरफ बढ़ने का इरादा बनाया .
पर यहाँ  एक और बहुत बड़ी समस्या होने वाली थी,अंसार को काबू में करने के बाद उसके हाथ-पाँव बाँधने में बहुत वक़्त ज़ाया होने वाला था और इस बीच कोई भी कहीं से भी अचानक टपक  सकता था और सब गुड-गोबर होने का ख़तरा था इसलिए उसका कोई दूसरा पक्का इंतजाम करना ज़रूरी था. ये सब सोचते हुए उन्होंने मन ही मन कुछ निश्चय किया और सीढ़ियों के मोड़ पर धीरे से एक कदम आगे सरक कर गर्दन घुमा कर नीचे झांका.

नीचे सीढ़ियों के दहाने पर अभी भी पहले ही की तरह सीढियों की तरफ पीठ किये दोनों पैर फैलाए, अंसार हाथों में दोनाली थामे खडा  था. 

बैजनाथ जी अपनी नज़रें अंसार की पीठ पर जमाये दम साधे एक-एक कदम ,बिना कोई आवाज़ किये आगे बढ़ा रहे थे.इस वक़्त उनका सारा ध्यान अंसार पर था और पूरा बदन मौका पड़ते ही झपट कर उस पर वार करने  को तैयार था.


पर अंसार को खबर न लग सकी और बैजनाथ जी ऐन उस के पीछे जा खड़े हुए और उनके दोनों हाथ नाग-पाश की तरह उसकी गर्दन से लिपट गए.इस से पहले की अंसार कुछ समझ पाता बैजनाथ जी ने  दोनों हाथों के एक झटके से उसकी गर्दन तोड़ दी और बिना कोई वक़्त गंवाए बांया  हाथ बढ़ा कर उसकी दोनाली बन्दूक थाम कर अपने बांये कंधे पर लटकाई और दांये हाथ से  उसकी नीचे को लुढ़कती लाश  को थामकर अपने कंधे पर लादा और,मन ही मन अंसार की आत्मा से माफ़ी मांगते हुए, बड़ी तेज़ी से ड्योढ़ी की तरफ बढ़े. 
  कुछ कदम आगे बढ़ते ही ड्योढ़ी से पहले दायीं ओर उन्हें पाखाने का दरवाज़ा  नज़र आया .बैजनाथ जी लाश को कंधे पर लादे -लादे दरवाज़े  में घुसे. अन्दर लाइन में चार अलग-अलग पाखाने थे,जहां पेशाब और पाखाने की बदबू को फिनायल से ख़तम करने की भरपूर कोशिश की गयी थी पर बदबू रोकी नहीं जा सकी थी. बैजनाथ जी ने आखरी  पाखाने का दरवाज़ा खोलकर लाश को अन्दर डाला और दरवाज़े को बन्द कर  दिया. 
बैजनाथ जी बन्दूक हाथ में थामे  वापिस पाखाने के दरवाज़े की तरफ लौटे और फिर उन्होंने बड़ी सतर्क नज़र बाहर दालान में सब तरफ डाली.कहीं कोई हरक़त  नहीं,हर तरफ सन्नाटा था . 
बैजनाथ जी ने मन ही मन बदमाशों की कार्य कुशलता की बड़ी तारीफ़ की जो बिना किसी शोर-शराबे के बड़ी शान्ति से अपनी कारगुजारी में लगे हुए थे.अगर दो हथियारबन्द बदमाशों से उनका पाला न पड़ चुका होता तो वो कभी भी ये मानने को तैय्यार न होते की हवेली में कहीं  कुछ अनहोना घट रहा था, फिर तो वो भी बब्बन की तरह यही मानने को मजबूर हो जाते कि बब्बन के साथ जो भी हुआ उसके लिए सिर्फ शर्फु ही ज़िम्मेदार था.


पर जो कुछ भी उनके सामने आया था उस से साफ़ ज़ाहिर था कि हवेली में ना सिर्फ कुछ अनहोना हो रहा था बल्कि जो कुछ भी हो रहा था ,बहुत खतरनाक हो रहा था और ये सन्नाटा तूफ़ान से पहले की शान्ति की तरह ही था. 


बैजनाथ जी ने बन्दूक अपने बायें कंधे पर लटकाई और धीरे-धीरे दीवार से चिपके-चिपके ड्योढ़ी की तरफ बढ़े.ड्योढ़ी के दरवाज़े पर पहुँच कर धीरे से गर्दन आगे बढ़ा कर उन्होंने ड्योढ़ी में झांका ,अन्दर बब्बन वाली ही हालत में एक और आदमी फर्श पर बंधा हुआ पडा था.ये ज़रूर शर्फु होगा,बैजनाथ जी ने सोचा.


बाकी ड्योढ़ी खाली थी.ड्योढ़ी के बाईं ओर एक बन्द  दरवाज़ा  था जिसकी कुण्डी बाहर से लगी हुई थी.दायीं ओर भी एक दरवाज़ा था जो खुला था और उसमें से एक लालटेन का बड़ा मद्धम प्रकाश बाहर आ रहा था.यानी जिस कमरे का यह दरवाज़ा था उसमें कुछ ना कुछ गड़बड़ वाली बात हो सकती थी.


बैजनाथ जी धीरे से ड्योढ़ी में दाखिल हुए और दीवार से लगे-लगे प्रकाशित कमरे के दरवाज़े की ओर बड़ी खामोशी से बढ़ने लगे.तभी अन्दर कोई बड़ी दबी हुई आवाज़ में खाँसा.बैजनाथ जी दीवार से एकदम चिपक कर खड़े हो गए .अन्दर कुर्सी खिसकने की सी आवाज़ हुई,या तो किसी ने कुर्सी अपनी ओर खींची थी या किसी ने कुर्सी से खड़े होकर उसे पीछे की तरफ खिसकाया था. फिर ऐसे लगा जैसे कोई आगे की तरफ बढ़ा हो और उसके बाद एक लम्बी परछाईं कमरे के दरवाज़े से निकलती हुई ड्योढ़ी के फर्श पर बढ़ने लगी,कोई बेफिक्री से कमरे से बाहर की तरफ आ रहा था, परछाईं के दोनों हाथ खाली थे.


अन्दर वाले आदमी ने ज्यों ही कमरे से बाहर ड्योढ़ी में कदम रखा बैजनाथ जी ने उसकी गर्दन थामने के लिए अपने दोनों हाथ बड़ी फुर्ती से आगे बढाए,पर बायें कंधे पर रखी बन्दूक एक झटके से बायें हाथ पर आगे खिसक आई जिसके कारण  बैजनाथ जी उसकी गर्दन  ना थाम सके और  वो आदमी अचानक से हुए इस हमले और बन्दूक की नाल  मुंह पर टकराने से एकदम हडबडा कर पीछे को हटा ,उसकी इस हडबडाहट का बैजनाथ जी ने पूरा-पूरा फ़ायदा उठाया. इस बार उन्होंने  उस आदमी को सँभलने का या चीखने-चिल्लाने का कोई मौका नहीं दिया,और झपट कर उसका मुंह दबोच लिया. शुक्र है जो वो आदमी बिना चीखे- चिल्लाए काबू में आ गया वरना तो जो भी होता बुरा ही होता.


वो आदमी बैजनाथ जी की मज़बूत पकड़ से छूटने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था.वो अपने हाथ पीछे करके बैजनाथ जी की गर्दन थामने की भी कोशिश कर रहा था, पर कुछ कर नहीं पा रहा था.फिर भी जिस तेज़ी और फुर्ती  से वो अपने मज़बूत हाथ-पैर इधर-उधर चला रहा था उस से बैजनाथ जी को साफ़ मालूम पड़ गया कि  यह शख्स ऐसे ही काबू में आने वाला नहीं है तो उन्होंने उसके मुंह पर रखी अपनी दायीं हथेली पर अपनी बाईं हथेली टिकाई और दायीं हथेली को हटाकर बाईं हथेली से उसका मुंह दबाया .इस बीच वो आदमी भी समझ गया था कि यह अपना हाथ बदलना चाह  रहा है तो उसने  बैजनाथ जी कि बाईं हथेली को अपने दोनों हाथों से पकड़कर अपना मुंह छुडवाने के लिए पूरा जोर लगाया पर इस से पहले कि  वो कुछ करने में कामयाब होता  उसकी गर्दन और कंधे के जोड़ पर बैजनाथ जी की तिरछी  हथेली  की ऐसी चोट पड़ी कि वो वहीं बेहोश हो कर ढेर हो गया.


बैजनाथ जी ने इस आदमी का भी छत वाले आदमी जैसा हाल किया,और सबकी निगाहों से बचाने के लिए बाईं तरफ ड्योढ़ी में डाल  दिया.


 फिर उन्होंने देखा कि सामने दीवार के साथ लगे बड़े से तखत पर दो लोग और बंधे पड़े थे.एक नौजवान लड़का था और दूसरा पचपनएक  साल के करीब की उम्र का खासा तंदरुस्त आदमी था.दोनों होश में थे और बैजनाथ जी की तरफ अपनी फटी-फटी  आँखों से बितर-बितर ताक रहे थे.बैजनाथ जी ने दोनों की तरफ आश्वासन पूर्ण निगाह डाली और तुरन्त हवेली के दरवाज़े की खिड़की को खोलने के लिए तेज़ी से आगे बढे . 


उन्होंने  हाथ आगे बढ़ा कर खिड़की की सांकल  को धीरे से खोला ,और फिर धीरे-धीरे पूरी खिड़की को खोलकर थोड़ा सा  पीछे को हट गए .बैजनाथ जी ये सोच कर कि कहीं लट्टू सिंह जल्दबाजी में कोई हरकत नकरबैठे,आवाज़ धीमी रखते हुए जल्दी-जल्दी बोले,''लट्टू भाई ,ये मैं हूँ बैजनाथ ,कोई चिंता कि बात नहीं है,पर आवाज़ बिलकुल मत करना और चुपचाप अन्दर आ जाओ,बिलकुल खामोश रहना ''.


फिर गली में खुली खिड़की के दूसरी तरफ, एक हाथ में डंडा थामे और दुसरे में लोटा , श्री लट्टू सिंह प्रकट हुए.उनके पीछे एक हाथ अपनी तोंद पर रखे और दुसरे में लालटेन लिए बब्बन पहलवान भी खड़े थे.बैजनाथ जी ने लट्टू सिंह के  हाथ से डंडा पकड़ा और उन्हें सहारा देकर खिड़की से अन्दर दाखिल होने में मदद की,उनके पीछे बब्बन मियाँ अन्दर दाखिल हुए और अन्दर आकर उन्होंने तुरन्त खिड़की को बंद कर दिया. 

अन्दर आते ही लट्टू सिंह एकदम बैजनाथ जी से लिपट गया और  बार-बार  उनका माथा चूमने लगा .उसकी आँखों से मारे ख़ुशी के आंसूओं की धार बह रही थी,और उसके होंठ थरथरा रहे थे .


बैजनाथजी ने धीरे से उसके आंसू पोंछे और फुसफुसाते हुए  बोले,''लट्टू भाई,असली ख़तरा अभी टला नहीं है,बदमाश अभी भी घर के भीतर ही हैं,घर की औरतें और बच्चों को अभी उनके कब्ज़े से छुडाना बाकी है,इसलिए जल्दी से पहले आप शर्फु को खोलिए और इसे होश में लाईये,ध्यान रखना ये कोई ज्यादा आवाज़  न करे  ,मैं तब तक अन्दर बैठक में बंधे पड़े लोगों को देखता हूँ ''. 


''ये तो सैय्यद साहब और उनका बेटा शमसू हैं, ''बैठक में झांकते हुए लट्टू सिंह फुसफुसायाऔर जल्दी-जल्दी शर्फु की रस्सियाँ खोलने लगा.


बैजनाथ जी ने जल्दी-जल्दी पहले सैय्यद  साहब और शमसू के मुंह पर बंधा  हुआ कपड़ा खोला और फिर उनकी रस्सियाँ नूरे के चाक़ू से काट डालींऔरबोले,''सैय्यद साहब,वक़्त बिलकुल नहीं है,इसलिए बाकी बातें बाद में पहले आप   फ़टाफ़ट मुझे ये बताइये कि अन्दर कितने बदमाश हैं और वो कहाँ-कहाँ  हो सकते हैं  ?''


सैय्यद साहब ने अपने हाथों और पैरों को सहलाते हुए बड़ी धीमी आवाज़ में पीने के लिए पानी माँगा,बैजनाथ जी ने उन्हें तखत के पास मेज़ पर  रखा पानी का लोटा पकड़ा दिया,सैय्यद साहब ने लोटे से चार घूँट पानी पीया और लोटा बैजनाथ जी को पकड़ा दिया.बैजनाथ जी ने पानी का लोटा शमसू के हाथों में दिया और सैय्यद साहब का मुंह ताकने लगे.सैय्यद साहब धीमी आवाज़ में  जल्दी-जल्दी बताने लगे,''ये सब नियादर और उसके साथियों का किया धरा है,नियादर समेत ये कुल पांच डकैत हैं.ये जिसे तुमने बेहोश किया है ,इसके अलावा अन्दर नियादर और उसके तीन साथी और हैं.एक मोटा हब्शी जैसा इंसान जिसे नियादर नूरा कह के बुला रहा था,उसे नियादर ने ऊपर छत पर पहरा देने के लिए भेजा था ,दूसरा रफीक और तीसरा अंसार हैं. इस शफीक को हमारे सर पे बिठा के बाकी लोग अन्दर जनान खाने कि तरफ गए थे.अंसार के पास दोनाली बन्दूक है,नियादर के पास देसी तमंचा है और बाकी सबके पास रामपुरी चाक़ू हैं.छुरे जैसा खतरनाक एक बड़ा चाक़ू नियादर के पास और है शायद चाक़ू अंसार के पास भी हो.'' इतना सब एक सांस में कह के सैय्यद साहब बैजनाथ जी की तरफ सवालिया निगाहों से देखने लगे,जैसे पूछ रहे हों कि अब तुम्हारा इरादा क्या है.


''घर वालों में से अन्दर कौन-कौन है?'' बैजनाथ जी ने पूछा.


''तुम हवेली में ऊपर छत के रास्ते दाखिल हुए हो ना?''सैय्यद साहब ने सवाल के जवाब में सवाल किया.


''जी,ठीक फरमाया आपने,और वो मोटा नूरा इसी के जैसी हालत में ऊपर छत पर बेहोश पडा है''.बैजनाथ जी ने बाहर ड्योढ़ी में ज़मीन पर नंगे - बंधे पड़े शफीक की तरफ इशारा करते हुए कहा.


''मेरा अंदाजा भी यही  था. नीचे आते हुए तुमने गौर किया  होगा कि ऊपर की दोनों मन्ज़िलों पर सफेदी और रंग-रोगन का काम अभी भी जारी है,जिसकी वज़ह से हम सब वक्ती तौर पर नीचे के हिस्से में रह रहे  हैं.


अन्दर सामने दालान के दूसरी तरफ जो लंबा बरामदा है उसके बाईं ओर एक कमरा है जिसमें  इन दिनों हमारी अम्मी हुज़ूर रह रहीं हैं ,उनके कमरे में उनके साथ उनकी पुरानी खिदमतगार शफ्फो बुआ भी रहती हैं.


बरामदे के दायीं ओर बड़ा हाल कमरा है,उसमें हमारी बेगम हमारी दोनों बेटियों के साथ  रह रही हैं,उनके साथ ही घर में नौकरानी की तरह कम और घर की मैनेजर की तरह समझी जाने वाली करीमन भी रहती है. रात में आजकल फैज़ भी अपनी अम्मी के ही पास सोता है, इन के अलावा कल ही शाम को हमारी बड़ी बेटी अपने दुल्हे  मियाँ और अपने दो बच्चों के साथ दिल्ली से आयी हैं.वो लोग हॉल कमरे के पीछे  भीतर की तरफ वाले कमरे में ठहरे हैं.जिस का रास्ता हाल कमरे से ही होकर है.''सैय्यद साहब ने ये तमाम ब्यौरा बैजनाथ जी को जल्दी-जल्दी कह सुनाया.
                                                                                                                                                           
  दोनाली दिखाते हुए बैजनाथ जी ने सैयाद साहब को कहा,''ये रही अंसार की  दोनाली और जैसा मैंने आपको बताया, नूरा छत पर शफीक जैसी ही हालत में बेहोश पडा है,अब आप ज़रा जल्दी से पुलिस चौकी फोन करके उन्हें यहाँ की  खबर  कीजिये,उन्हें यह ज़रूर कह दीजिएगा कि इस बीच हाथापाई में  एक डाकू मारा जा चुका है, पुलिस जितनी जल्दी यहाँ पहुंचेगी ,हम सब के लिए उतना ही अच्छा होगा, तब तक मैं अन्दर की खोज-खबर लेता हूँ''.


ये सब नियादर का किया धरा है सैय्यद साहब से ये जानकर बैजनाथ जी बहुत चिंतित हो गए थे.वो नियादर और उसके गैंग के बारे में कई बार बहुत से लोगों से काफी कुछ सुन चुके थे.नियादर का मुख्य साथी और उसका दाहिना हाथ माना जाने वाला अंसार किसी भी मायने में नियादर से कम नहीं था.शुक्र है कि अंसार मारा जा चुका था और नियादर के बाक़ी तीन साथियों में से  दो बेहोश पड़े थे,एक छत पर और दूसरा यहाँ नीचे बैठक में.पर नियादर खुद अभी भी अपने एक साथी के साथ अन्दर जनानखाने में था, जो कि कम चिन्ता कि बात नहीं थी.खासकर उसकी स्त्रीयों पर गन्दी नज़र रखने कि आदत उन्हें ज़्यादा परेशान किये दे रही थी.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             


इस बीच लट्टू सिंह फर्शु को खोलकर उसे पानी पिलाने की  कोशिश कर रहा था.
बैजनाथ जी ने दोनाली बन्दूक सैय्यद साहब को पकड़ाई और उनसे कहा,''अगर बदमाशों में से कोई इधर आ निकलता है तो बेधड़क उसे गोली मार दीजिएगा,अन्दर दो डकैत हैं और आपके पास इस बन्दूक में दो - दो गोलियां एकदम तैयार हैं इसलिए घबराने की ज़रा भी ज़रुरत नहीं है ,फिर बैजनाथ जी बाहर ड्योढ़ी में आये और उन्होंने ने लट्टू और बब्बन को कहा,''आप लोग फर्शु समेत तीन जाने हो ,अपने लट्ठ संभाल कर चौकन्ने रहना ,कोई सैय्यद साहब तक या बाहर जाने ना पाए,मैं .....''


बैजनाथ जी अभी लट्टू से बात ही कर रहे थे की सैय्यद साहब दोनाली हाथ में लिए उनके पास आन खड़े हुए और बोले,''सुनो भाई बैजनाथ, हमारी तुमसे  गुजारिश है कि हमें भी अपने साथ अन्दर आने दो हम तुम्हारे मददगार ही साबित होंगे ,यकीन मानो हमारी वज़ह से कोई परेशानी नहीं होने पाएगी वो तो हम सोये हुए थे कि डाकुओं ने आकर दबोच लिया वरना तीन-चार के काबू में तो हम जल्दी से आज भी आने वाले नहीं हैं,यहाँ शमसू ,लट्टू सिंह और बब्बन के साथ रहेगा और पुलिस को फोन भी कर देगा हम तुम्हारे साथ चलते हैं.''

बैजनाथ-7

बैजनाथ जी लट्टू के घर से चल कर गलियाँ पार करते हुए जब इमली वाले आहते तक पहुंचे तब और सब गलियों की तरह वहाँ भी नीम-अन्धेरा ही था.
          मैं बीच में रुक कर एक बात बताना  चाहूंगा .उन दिनों गलिओं में बिजली कि रौशनी नहीं होती थी,गली के नुक्कड़ पर किसी मकान की दिवार पर या खम्बों पर रौशनी  के लिए बड़े-बड़े लैम्प लगाए जाते थे. इन लैम्पों की सुरख्या के लिए इन्हें लोहे के फ्रेम वाले शीशे के बड़े-बड़े बक्सों में रखा जाता था जिनका ऊपर का ढक्कन वाला भाग लोहे की चादर का होता था जिसमें से धुआं आदि निकलने के लिए  एक छोटी सी चिमनी भी लगी होती थी. रोजाना दोपहर बाद एक आदमी आता, जो लैम्पों की चिमनी आदि की साफ़-सफाई करता उनमें मट्टी का तेल भरता और चला जाता.दिन ढले दूसरा आदमी आता और लैम्प जलाकर जाता .इन  लैम्पों में इतना तेल होता था कि वो रात दो-ढाई बजे तक जलते रहते थे.उन दिनों हमें इन लैम्पों  कि रौशनी काफी लगती थी और अब तो सब को ऐसी आदत हो गयी  है कि आँखें तेज़ रौशनी के बिना कुछ देख ही नहीं पातीं. 
इमली के पेड़ के पास से गुज़रते वक़्त अचानक बैजनाथ जी को ठोकर लगी और वो भर-भराकर मुंह के बल गिर पड़े.कुछ संभले तो उन्होंने देखा कि इमली के नीचे ज़मीन पर  एक अच्छा-खासा मोटा आदमी पड़ा था जो शायद बेहोश भी  था. गौर से देखने पर उन्हें मालूम पड़ा कि उस मोटे आदमी के हाथ  पीठ के पीछे करके बड़ी मजबूती से बांधे हुए थे, यही हाल दोनों पैरों का था और मुंह में कपड़ा ठूंसा हुआ था. 
बैजनाथ जी ने सबसे पहले उसके मुंह में से ठूंसा हुआ कपड़ा निकाला और फिर उसकी नब्ज़ टटोली .नब्ज़ चल तो रही थी पर धीमी थी,फिर उन्हों  ने बेहोश पड़े मोटे आदमी के हाथ -पैर खोले और जहां रस्सी से कस कर बांधा गया था वहाँ उसके हाथ-पैरों को धीरे-धीरे मसलने लगे ताकि रुका हुआ खून का दौरा ठीक हो सके,इसके बाद बैजनाथ जी को और तो कुछ सूझा नहीं, वो उठकर वापिस लट्टू के घर की तरफ भागे.
 दरवाज़ा खटखटाने पर लट्टू ने दरवाज़ा खोला ,वो भी बस सोने की तैयारी में ही था.
बैजनाथ जी को वापिस आया देख लट्टू बोला,''के बात बैजनाथ,वापस कैसे आ लिया अर घबराया हुआ क्यूं है?''
बै.ना.:सब बताऊंगा, लट्टू भाई,पहले लालटेन और एक लोटा पानी ले के आओ और मेरे साथ चलो .
ल.:''पर हुया के है,कुछ बोल्लेगा भी.''
''बात मत करो लट्टू भाई और  जल्दी करो ,'' कहते हुए बैजनाथ जी ने लट्टू सिंह को घर के अन्दर की तरफ धकेला और खुद उन्होंने दीवार के सहारे  खडा लट्टू सिंह का डेढ़ इंच मोटा और कोई तीन फुट लंबा  डंडा उठा लिया.''
लट्टू लालटेन की लौ  ठीक करते हुए तेज़ी से आया  और उसके पीछे-पीछे पीतल के चमचमाते लोटे में पानी लिए हुए उसकी बीवी आ गई. 
''भाभी,जब तक लट्टू भैया ना आ जाएँ दरवाज़ा मत खोलनाऔर खामखा घबराओ नहीं ,भैया अभी वापिस  आते हैं.''बैजनाथ जी पानी का लोटा पकड़ते हुए बोले.
बैजनाथ जी तेज़ी से गली में चले तो लालटेन लिए-लिए लट्टू भी उनके पीछे-पीछे लपका .दोनों तेज़ी से इमली के नीचे पहुंचे .
मोटे आदमी पर लालटेन की रौशनी पड़ी तो लट्टू सिंह एक दम बोल पड़े,''अरे,ये तो बब्बन पहलवान है.ये यहाँ कैसे आया.''
बैजनाथ जी ने बब्बन के मुंह पर पानी के छींटे मारने शुरू किये और लट्टू से पूछा ,''कौन बब्बन ?''
लट्टू बोला,''ये सैय्यद साहब का पहलवान है ,उनकी हवेली में रात को चौकीदारी भी करता है.''और साथ ही लट्टू ने बब्बन को झिन्झोड़ना शुरू किया.
बैजनाथ जी ने लट्टू को सारी बात, कि उन्हें बब्बन कैसे-कैसे  बंधा हुआ मिला था, जल्दी-जल्दी बताई और लट्टू को बब्बन के पास छोड़कर तेज़ी से हवेली के दरवाज़े कि तरफ लपके.
बैजनाथ जी ने हवेली के दरवाज़े को धीरे से अन्दर की तरफ धक्का दिया पर वो हिला भी नहीं,दरवाज़ा अन्दर से मजबूती से बंद था,फिर बैजनाथ जी ने  दरवाज़े की खिड़की को अन्दर की तरफ धक्का देकर खोलने की कोशिश की पर वो भी अन्दर से बंद थी. बैजनाथ जी वापिस इमली के पास पहुंचे.
बब्बन को होश आना शुरू हो गया था और वो धीरे-धीरे कराह भी रहा था,  साथ ही  साथ वो  अपने सिर  के पीछे भी टटोल रहा था.
बैजनाथ जी बब्बन के सिर को अपनी गोदी में लेकर बैठ गए और उससे बोले,''बब्बन,तुम मुझे यहाँ  बेहोश और बंधे हुए  पड़े  मिले थे,तुम यहाँ कैसे पहुंचे और तुम्हारा ये हाल किसने और कैसे किया ?''और बैजनाथ जी लट्टू से बोले ,''लट्टू भाई,हवेली का दरवाज़ा और उसकी खिड़की अन्दर से बड़ी मजबूती से बंद हैं तो ये बाहर क्या कर रहा है?'' 
''मैं कहाँ हूँ?'' बब्बन चारों ओर निगाह घुमाते हुए कराहते हुए बोला.
बैजनाथ जी ने बब्बन को सहारा देकर बिठाया और पानी का लोटा उसके मुंह से लगाते हुए बोले,''पहलवान जी, आप इमली के नीचे बंधे हुए बेहोश पड़े थे,अब ज़रा पानी पीओ और अपनी याददाश्त पर जोर देकर  बिना वक़्त गंवाए सारी बात ठीक-ठीक से बताओ ताकी पता लगे कि माजरा क्या है,मुझे तो मामला बहुत खतरनाक सा लग रहा है,और ये वो रस्सियाँ हैं जिनसे आप के हाथ और पाँव बांधे गए थे.'' ये कहते हुए बैजनाथ जी ने रस्सी के दोनों बड़े-बड़े टुकड़े बब्बन की आँखों के सामने लहराएऔर फिर दोनों रस्सियाँ अपनी कमर पर बाँध लीं.
फिर बब्बन ने कुछ घूँट पानी के पीये और अटक-अटक के कहना शुरू किया,''मैं तो  रोज़ की तरह दरवाज़े की खिड़की खोल कर पेशाब करने के लिए बाहर निकला था यहाँ पहुंचा तो किसी ने जोर से मेरे सिर पे पीछे से लाठी दे मारी और मैं यहीं बेहोश होकर गिर पड़ा,पर खिड़की तो खुली थी और तुम कौन हो भाई,और तुम लट्टू को कैसे कह रहे थे की दरवाज़ा और उसकी खिड़की दोनों अन्दर से बंद हैं ? ये ज़रूर हरामजादे शर्फु की शरारत है ,मैं उसे छोडूंगा नहीं.''कहते हुए बब्बन ने उठने की कोशिश की तो एकदम से उसे चक्कार आ गया और वो वहीं सिर पकड़ कर बैठ गया.
बैजनाथ जी ने लट्टू से पूछा  ,''यह शर्फु कौन है?'' 
''शर्फु इसका साथी है और इसके साथ ही चौकीदारी करने वाला वो दूसरा पहलवान है.'' लट्टू सिंह ने बताया.
बैजनाथ जी  बोले ,''पहलवान जी ,जहां तक मैं सोचता हूँ आपकी ये हालत आपके साथी शर्फु ने नहीं बल्कि बदमाशों ने की है और मैं शर्तिया तौर पे कह सकता हूँ की इस वक़्त शर्फु भी आप की तरह ही अन्दर बन्धा पड़ा होगा और जिन्हों ने भी ये काम किया है उनके इरादे मुझे ठीक नहीं लगते,जब तक आप की तबीयत संभलनहीं जाती आप यहीं रहो ,हम देखते हैं की क्या हो सकता है.आओ लट्टू भाई.''कहते हुए बैजनाथ जी हवेली की तरफ लपके और लट्टू उनके पीछे-पीछे लपका .
हवेली के दरवाज़े पर पहुँच कर बैजनाथ जी ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ डंडा लट्टू को पकडाया और बोले,''लट्टू भाई,ये तो मैं अच्छी  तरह से जानता हूँ कि आप कभी भी किसी से डरने वाले नहीं हैं पर इस वक़्त मैं आप से ये कहना चाहता हूँ कि लालटेन धीमी करके अपने पीछे रख लो और इस खिड़की के पास डटे रहो, जो भी कोई निकलेगा इसी खिड़की के रास्ते ही बाहर निकलेगा ,याद रखना ,बाहर कोई भी  ना निकलने पाए ,ज्यों ही गर्दन बाहर निकले घुमाके डंडे कि ऐसी चोट मारना कि एक चोट में ही खोपड़ी खुल जाए दूसरी चोट कि ज़रुरत नहीं पड़नी चाहिए.'' कहते हुए बैजनाथ जी खंडहर कि तरफ को चलने लगे.
''पर बेटा, तू  न्यूं एकला  और निहत्था के  करन की सोच रह्या  है ?कम से कम यो  डंडा तो ले ले, न जाणे अन्दर कितने बदमाश हैं ,बलके ने मैं न्यूँ
करूं के  पिछली गली में जाके ने  वहाँ तै  कुछ और लोगां  ने  भी जगाये ल्यावूं  हूँ सब मिल्के ने  खड़े होवेंगे तो मेरी समझ में ज़्यादा बढ़िया काम बडेंगा.''लट्टू चिंतित स्वर में कहने लगा.
''ये डंडा तुम्हारे लिए ही है ,लट्टू भाई,मैं तो खाली हाथ ही ठीक हूँ और मुझे लगता है की पहले ही बहुत देर हो चुकी है ,अन्दर न जाने क्या कुछ हो रहा है ,कहीं भी जाने का वक़्त नहीं है,आप बस मेरी यहीं इंतज़ार करना.मैं अन्दर घुसने का रास्ता देखता हूँ ,मुझे लगता है कि इस साथ वाले मकान की छत से ही कोई न कोई रास्ता मिलेगा''.ये कहते हुए बैजनाथ जी खंडहर की तरफ लपके.
बैजनाथ जी ने एक नज़र खंडहर की सामने वाली दीवार पर डाली तो उन्हें मकान के मस्जिद की तरफ वाले कोनें में मस्जिद की छत्त से नीचे तक आता हुआ लोहे का एक  काला सा पाइप नज़र आया.शायद ये बरसाती पानी की निकासी के लिए लगाया गया था.एक सैकिण्ड  के लिए बैजनाथ जी के मन में ये संशय पैदा हुआ कि ये पुराना पाइप न जाने मेरा वज़न ले भी पायेगा या नहीं पर फिर उन्होंने सोचा कि इस वक़्त और कुछ चारा भी नहीं  है और फिर बिना वक़्त गवांये बैजनाथ जी ने अपनी जूतियाँ वहीं उतारीं और लट्टू के देखते ही देखते बन्दर कि सी फुर्ती से मस्जिद की मुंडेर पर चढ़ गए.
और वक़्त होता तो बैजनाथ जी की फुर्ती देख कर लट्टू वाह-वाह कर उठता पर इस वक़्त तो वो बस मुंह बाए देखता ही  रह गया .  
वहाँ से रास्ता आसान था, खंडहर की दीवार से लगी हुई मस्जिद की मीनार खड़ी थी. बैजनाथ जी ने मस्जिद की मीनार के दरवाज़े की कुण्डी खोली और उसमें घुस गए.मीनार के अन्दर गोल-गोल सीढ़ियों को चढ़ते हुए बैजनाथ जी ऊपर पहुंचे और झरोखे से बाहर निकल  कर खंडहर की छत्त पर उतर गए . अन्दर पूरे मकान में सन्नाटा था,रात की इस घडी इंसान तो क्या जानवर और मुर्गियां तक अपने-अपने घोड़े बेचकर चैन की नींद सोये पड़े थे.ये चौकोर छत्त थी जिसके बीचों-बीच नीचे से लेकर ऊपर तक खुला दालान था.बैजनाथ जी बिना आवाज़ किये उकडू होते हुए ही 
बड़ी तेज़ी से हवेली और खंडहर की छतों के बीच वाली मुंडेर के पास पहुंचे.
  बैजनाथ जी जानते थे कि इस से आगे उनका हर क़दम उनके लिए निर्णायक साबित होने वाला था.
बैजनाथ जी ने देखा कि मुंडेर में बीच-बीच में झरोखे से बने हुए थे.छत के एक कोने से उन्होंने इन झरोखों में से हवेली की छत पर झांकना शुरू किया,
हवेली की छत भी इस मकान की तरह चौकोर थी और उसके बीच में भी खुला दालान था.इस खुले दालान के चारों तरफ सुरख्या के लिए कोई चार फुट ऊंची मुंडेर बनी हुई थी.शुरू में बैजनाथ जी को हवेली के आगे वाले हिस्से की छत नज़र आई, जो हवेली की आगे वाली मुंडेर और दालान की मुंडेर के बीच इस सिरे से सामने वाले किनारे तक सपाट खाली थी. छत खुले दालान की मुंडेर के चारों ओर आयताकार में घूमी हुई थी.बैजनाथ जी जिस मुंडेर के पीछे थे उसके साथ वाली छत भी खाली थी,सामने कोने में सीढ़ियों का दरवाज़ा था.जो अँधेरे में ध्यान से देखने पर मालूम पड़ा कि खुला हुआ था.हवेली के दालान की परले वाली मुंडेर के पीछे जो छत का हिस्सा था वो मुंडेर की आड़ होने की वजह से नज़र नहीं आ रहा था.वहाँ कोई न कोई होसकता था.  अचानक बैजनाथ जी को मुंडेर के पीछे कुछ हिलता हुआ सा लगा. घने अँधेरे में आँखों पर बहुत जोर डालने पर उन्हें एहसास हुआ कि उधर छत  पर कोई था,जो छत पर चौकसी के लिए सावधानी से 
टहल रहा था.वो छत पर अकेला था या उसके साथ उसका कोई साथी भी था ये जानना बहुत ज़रूरी था,फिर उनकी ये समस्या अपने आप हल हो गई.
उधर टहल रहे आदमी ने मुंडेर से नीचे  दालान में झांका और धीरे से बोला,''अंसार,क्या बात है ,बहुत देर लग रही है ?''आवाज़ में बहुत बेचैनी थी.
''चुप कर और कुछ देर और ऊपर ही अपनी तवज्जो रख.'' नीचे से किसी ने दबी हुई पर तीखी आवाज़ में ऊपर वाले को फटकारा. जवाब में उसने छत पर थूक कर अपना गुस्सा उतारा और मुड़कर हवेली की सामने वाली मुंडेर के पास जा कर धार मारने की कोशिश में लग गया.
बैजनाथ जी को यह  विशवास तो  हो गया कि छत पर जो भी आदमी है वो वहाँ अकेला ही है पर उसे गली कि तरफ वाली मुंडेर के पास देखकर उनका दिल सहम  गया. उन्हों ने मन ही मन भगवान् से प्रार्थना की, कि वो कहीं उचक कर गली में न झाँक ले वरना बंटाधार ही हो जाएगा ,क्योंकि गली में  डंडा लिए लट्टू चौकस खडा साफ़ नज़र आ जाना था.
बैजनाथ जी बिना एक पल झिझके छतों के बीच की मुंडेर पार कर हवेली कि छत पर आ गए और दालान की मुंडेर का दबे पाँव उकडू हालत में ही तेज़ी से घेरा काटा और पेशाब करते आदमी के पीछे सांस रोके जा खड़े हुए.
जब वो आदमी पेशाब कर के अपने पाजामे का नाड़ा बांधते हुए पलटा तो बैजनाथ जी को एकदम अपने सामने पाकर हैरान ही रह गया,हैरानी से उसका मुंह खुला का खुला रह गया और आँखें फैलती चली गयीं,ऐसे जैसे उसने भूत देख लिया हो .
इस से पहले की वो बैजनाथ जी की मौजूदगी से संभल पाता या चिल्ला कर अपने साथियों को नीचे सावधान कर पाता उसकी गर्दन और कंधे के जोड़ पर बैजनाथ जी की  दायें हाथ की तिरछी  हथेली की  ऐसी  करारी चोट पड़ी कि बैजनाथ जी को उसकी कालर  बोन चटकने की  आवाज़ साफ़-साफ़ सुनाई पड़ी और  वो  आदमी चकराकर वहीं के वहीं गिरने लगा.बैजनाथ जी ने उसके गिरने से पहले ही उसकी जाँघों के बीच अपने दायें घुटने की ऐसी भरपूर चोट की ,कि उसके मुंह से एक लम्बी  फुत्कार  निकली, जैसे गुब्बारे से हवा निकली हो और वो बैजनाथ जी के हाथों में ही बेदम होकर लुढ़क गया.
बैजनाथ जी ने उसे दोनों हाथों में संभाला और छत पर लिटा दिया.उन्होंने उसकी नब्ज़ टटोली .नब्ज़ बहुत ही धीमे-धीमे चल रही थी.बैजनाथ जी को पूरा भरोसा था की वो कम से कम एक घंटे से पहले होश में नहीं आने वाला था ,वो हैरान भी थे कि ऐसा लंबा-चौड़ा आदमी इतना लिजलिजा निकला था कि एक हाथ पड़ते ही टें बोल गया था.
बैजनाथ जी ने फुर्ती से उसकी तलाशी ली तो उन्हें उसकी कमीज़ की बगल वालीजेब से कमानीदार रामपुरी चाक़ू मिला.उसके हाथ वाली लाठी और इस चाक़ू के अलावा उसके पास और कोई हथियार नहीं था.इस आदमी और इसके साथियों को शायद अपने ऊपर कुछ ज़्यादा ही भरोसा मालूम पड़ता था पर बैजनाथ जी हैरान थे कि ये कैसा डकैत था जो बिना हाथ कि लाठी चलाये एक हाथ पड़ते ही लोट गया था.
खैर जो भी हो शुरुआत अच्छी हुई थी.
बैजनाथ जी ने जल्दी-जल्दी उसका नाड़ा खींच कर उसका पजामा उतारा और फिर नाड़ा खींच उसका कच्छा भी उतार दिया,आदमी रंगीन था,पजामा और कच्छा दोनों के  नाड़े मोटे-मोटे रेशमी और रंगीन थे,पट्ठे ने उनका काम आसान कर दिया था. 
 बैजनाथ जी ने  उसका कच्छा उसके मुंह में ठूंसा उसकी कमीज़ की एक बांह फाड़ी और उससे उसका  मुंह बाँध दिया.फिर  नाड़ों कि मदद से पीठ पीछे उसके हाथ और फिर उसके पाँव भी खूब मजबूती से बाँध दिएऔर उसे नंगी और बंधी हुई हालत में ही एक तरफ छत पर लुढका दिया .
उस से निबट कर बैजनाथ जी ने बड़ी सावधानी से मुंडेर के ऊपर से नीचे आँगन में झांका.नीचे सीढ़ियों के दहाने  पर एक आदमी सीढ़ियों कि तरफ पीठ किये हाथ में दोनाली बन्दूक लिए खडा था. जिस सतर्कता से वो खडा था उसी से बैजनाथ जी समझ गए कि यह आदमी बड़ा चौकन्ना था.शायद इसी को ऊपर वाले आदमी ने अंसार कह के बुलाया था.
बैजनाथ जी दबे पाँव सीढियां उतरने लगे,दूसरी मंजिल पर हर तरफ बेतरतीबी सी फैली हुई थी.सीढ़ियों के पास गैलरी में एक बड़े से ड्रम में सफेदी भीगी हुई थी और उसके पास ज़मीन पर कुछ डब्बे और सफेदी करने के लिए इस्तमाल होने के लिए कनस्तर आदि पड़े थे.
पहली मंजिल की  हालत भी यही बता रही थी कि वहाँ भी दूसरी मंजिल की तरह रंग-रोगन का काम चल रहा था.यानी पहली और दूसरी दोनों मंजिलों पर  सफेदी और रंग रोगन का काम इकट्ठा चल रहा था,जिसकी वज़ह से वक्ती तौर पर घर के लोग ऊपर वाली दोनों मंजिलें खाली करके हवेली के नीचे  वाले हिस्से में डेरा जमाये हुए थे.लुटेरों  ने मौका बहुत सही ताड़ा था.अकेली नीचे की मंजिल पर सारे घर वालों को संभालना ज्यादा आसान काम था.इसीलिए ऊपर छत पर सिर्फ एक आदमी को पहरे के लिए छोड़ना काफी समझा गया था . बाकी जितने भी बदमाश थे सब नीचे घर वालों के साथ ही थे.   

Saturday, February 19, 2011

बैजनाथ - 6

सैय्यद साहब से मेरा परिचय इसलिए था क्योंकि, वे मेरे सहपाठी शमसू उर्फ़ शमसुद्दीन के पिता थे. किसानों से गन्ना खरीदते थे और उसकी बहुत उम्दा खांड बना कर बोरियां भर-भर कर दूर दिल्ली के बाज़ारों में बेचने के लिए भेजते थे.शमसू व अन्य मित्रों के हवाले से मुझे यह भी मालूम था कि वह लोग बहुत ज़्यादा ( खानदानी /पुश्तैनी )अमीर /रईस थे. रईसी का यह आलम था कि घर में पहले से एक कार होते हुए उन्होंने एक और बिलकुल नई नीले रंग की चमचमाती हुई अम्बेसडर कार खरीदी थी जिसका दाम उस सस्ते जमाने में, जब देसी घी दो रुपये सेर आता था,चौदह हज़ार रुपये बताया जाता था.
आजकल तो दो क्या तीन-तीन कारों का भी एक घर में होना कोई बहुत ज़्यादा हैरानी की बात नहीं मानी जाती पर उन दिनों तो एक कार भी पूरे शहर में किसी-किसी के ही घर में होती थी.
मोटरसाइकिल भी कोई-कोई शौकीन रईस ही रखता था
आम लोग साइकिल खरीद कर भी अपने आप को बहुत खुशनसीब मानते थे.
मुझे याद है कि कुछ महीने पहले जब मेरे पिता जी नई साइकिल खरीद कर लाये थे तो उसे संभाल कर घर के अन्दर वाले बरामदे में रखा जाता था और  माँ  आते-जाते उस पर बड़े प्यार से हाथ फिराया करती थी.
खैर ,मैं बात कर रहा  था सैय्यद साहब की ,उन्हें शायरी  का भी बड़ा शौक था, बड़े-बड़े मशहूर शायरों को बुलवा कर ख़ास मुशायरे करवाया करते थे.एक बार मैं  भी गया था एक मुशायरे में अपने पिता जी के साथ.मुझे याद है कि मैंने खूब आनन्द लेकर सभी शायरों को सुना था.शायद उन्हीं दिनों से   
मेरी साहित्यिक अभिरुचि जागृत हुई थी.
ऐसे शरीफ और शान्तिप्रिय व्यक्ति के घर डाका पडा था.
डाकुओं के सरगना का नाम था ,'नियादर'
वैसे उसकी माँ ने उसका नाम रखा था ,अशरफ अली . 
 वो मुज़फ्फरनगर की अपने जमाने की एक मशहूर तवायफ का बेटा था,जिसने अपने बेटे को अपने पेशे की खुराफातों से दूर रखने के लिए अपने आप से ही दूर कर दिया था.अशरफ अली की परवरिश एक मिशनरीज़ होस्टल में हुई थी. लखनऊ के उस मिशनरीज़  स्कूल में दसवीं की पढ़ाई करते तक अशरफ निहायत शरीफ और मेहनती विद्यार्थियों में से एक था. तेज़ दिमाग तो वो हमेशा से ही था परन्तु ग्याहरवीं और बारहवीं की अपनी क्लास में हायर मैथ और फिजिक्स के सवालों को हँसते-हँसते कर देने वाला,अपने सारे टीचर्ज़ की आँखों का तारा अशरफ बारहवीं के फाइनल एग्जाम्स से ठीक पहले न जाने कहाँ गायब हो गया.
फिर अचानक एक दिन मिशन कम्पाउंड में फादर के पास एक पुलिस इन्स्पेक्टर पंहुँचा, वो मिशन में अशरफ के बारे में पूछताछ करने के लिए आया था,उसी से मालूम पडा कि लखनऊ के पास एक गाँव में जो 
बरात लूटी गयी थी ,उसके लुटेरों में अशरफ  भी शामिल था और उसने अपना नाम ,अशरफ से बदलकर ,'' नियादर '',रख लिया था.उस लूट में ,क्योंकि कोई मारा नहीं गया था और कम उम्र अशरफ उर्फ़ नियादर का वो पहला अपराध था इसलिए अदालत ने उसे सिर्फ एक साल के लिए ,जेल कि बजाय , बाल सुधार गृह में  भेज दिया था.बाल सुधार गृह में अशरफ तो कहीं गुम ही हो गया और नियादर पूरी तरह से मंज कर एक पक्का खिलाड़ी बन कर बाहर निकला.
नियादर अशरफ से नियादर क्यों और कैसे बना ,यह राज़ कभी कोई नहीं जान पाया.
उसके बाद डाके डालना और लूट-पाट करना उसके लिए मामूली काम हो गया,पर वो कभी पकड़ा न जा सका.
पिछले साल सर्दियों में शामली के एक रईस के घर उसने डाका डाला तो अगले दिन उनकी जवान-जहान बेगम ने कूएं में कूद कर जान दे दी थी .पता ये लगा कि नियादर ने उनके साथ ज़बरन मुंह काला किया था,जिसका गम वोह सह नहीं पाईं और कूएं में कूद कर एक कुकर्मी की बदमाशी की सज़ा सारे समाज को दे गयीं.
अब जहां लोग नियादर के नाम से ही  डरते थे वहाँ उस से नफरत भी बहुत करते थे.वो तो बस एक जीता-जागता पिशाच ही था.
इस वारदात के बाद पुलिस ने नियादर पर पूरे पांच सौ रुपये का इनाम भी घोषित किया था.
सब समझ सकते हैं कि उन दिनों पांच सौ रुपये कितने मायने रखते थे. 
वो इनाम मिला बैजनाथ जी को.
बैजनाथ जी रोजाना दिन ढले सात बजे लट्टू के घर उसके दोनों बेटों को जो की आठवीं और छठी क्लास में पढ़ते थे,ट्यूशन पढ़ाने जाते थे और रात को तकरीबन आठ-साढ़े आठ  बजे तक वहाँ से लौटते थे.बदले में लट्टू पूरे प्रेम से उन्हें अपनी गाय का आधा सेर दूध गर्म करके और मीठा मिला कर रोज़ पिलाया करता था.बैजनाथ जी इस सिलसिले  से भी सन्तुष्ट थे.
उस दिन बैजनाथ जी लट्टू के घर बहुत लेट हो गए. लट्टू की गाय ने बछिया जनी थी  और बैजनाथ जी देर रात तक गाय के प्रसव और फिर उसकी सेवा-सुश्रुषा में लट्टू की मदद करते रहे. उसके बाद सब काम से निबटकर लट्टू के घर के आँगन वाले कूएं पर उस जाड़े में नहा-धोकर फ्रेश हुए और एक गिलास चाय पीकर रात को कोई एक बजे लट्टू के घर से विदा हुए.
लट्टू की गली से तीन गली पार करने के बाद एक  बहुत पुराना इमली का पेड़ था,जिसकी वजह से उसके चारों ओर एक बहुत बड़ा आहता सा बन गया था जिसमें दिन के वक़्त बच्चे गुल्ली-डंडा खेला करते थे.  और उस आहते के बाद बहुत चौड़ी सैय्यदों की हवेली वाली गली थी जिसके दुसरे सिरे पर मस्जिद थी. गली में सैय्यदों की हवेली के अलावा कुल जमा दो घर और थे जो हवेली के आजू-बाजू ऐसे खड़े थे जैसे किसी नवाब के अगल-बगल फकीर और इन तीनों मकानों के सामने जुलाहों के मकानों की एक कतार पीठ किये खड़ी थी,यानी बसावट के नाम पर पूरी गली में कुल जमा यही तीन घर ही थे.
हवेली से पहले जो घर था उसमें मुंशी साहिब्दीन रहते थे, मुंशी जी बराए नाम ही मुंशी थे असल में तो वो सैय्यद साहब की पूरी ज़मींदारी की देखरेख के लिए ज़िम्मेदार थे और माना ये जाता था कि मुंशी साहिब्दीन  को चाहे रात के दो बजे जगा कर किसी भी हिसाब के बारे में पूछ लो मुंशी जी पूरा  आने-पाई तक का हिसाब बिना किसी हिचकिचाहट के मुंह-जुबानी सामने रख  सकते  थे.अच्छी खासी तनख्वाह के साथ-साथ यह घर भी मुंशी जी को सैय्यद साहब की ओर से रहने को मिला हुआ था जहां मुंशी जी अपनी तीन-तीन बीवियों और उनके अनेक बच्चों के साथ खूब मज़े में रह रहे थे. 
हवेली के बाद मस्जिद से कोना बनाता जो बड़ा सा घर था वो सैय्यद साहब का बहुत पुराना पुश्तैनी घर था और अब न जाने क्यों खंडहर कहलाता था, जबकि अभी भी उसमें सैय्यद साहब के घरेलू  नौकर लोग अपने-अपने परिवारों के साथ अलग-अलग हिस्सों में रहते थे.इस के अलावा सैय्यद साहब के गाय-भैंस और मुर्गियां भी इसी खंडहर कहलाने वाले हवेलीनुमा मकान में रहते थे.
सारा दिन इस मकान में अच्छी-खासी चिल्ल-पों मची रहती थी.
इस घर में घुसते ही ड्योढ़ी के दायीं ओर जो कमरा था उसमें हवेली के पहलवाननुमा दो चौकीदार बब्बन और शर्फु रहते थे.
रात को यह दोनों हवेली की ड्योढ़ी में चौकीदारी के नाम पर बारी-बारी सोते थे.
चौकीदारी के इस सिलसिले को शायद कभी किसी ने कोई ख़ास  गंभीरता से नहीं लिया था,बस बराए नाम ये चला ही आ रहा था.अगर कभी किसी ने इस सिलसिले पर ज़रा भी गंभीरता से सोचा होता तो वो फ़ौरन देख लेता कि ये दोनों पहलवान , सही मायने में चौकीदार तो क्या पहलवान भी कम और मोटे-थुलथुल हलवाई ज़्यादा नज़र आते थे, जो वक़्त पड़ने पर किसी का  मुकाबला तो क्या किसी के सामने ज्यादा देर ठीक से खड़े भी नहीं रह सकते थे.बब्बन में एक और बड़ी भारी कमी थी .जब शर्फु अपनी पारी पूरी करके सोने लगता था तो वो बब्बन को चौकीदारी के लिए जगाकर तब लेटता था. इधर बब्बन मियां अंगडाई लेते हुए उठते और हवेली के विशाल दरवाज़े में बनी छोटी खिड़की को खोलकर उसमें से होते हुए बाहर गली में आ जाते और धार मारने के लिए इमली वाले आहते कि तरफ हो लेते.धार से फारिग होकर बब्बन मियाँ गली में थोड़ी देर चहलकदमी करते और फिर खिड़की के रास्ते हवेली कि ड्योढ़ी में घुसते और खिड़की की कुण्डी लगा कर अपनी ड्यूटी पर बैठ जाते.
डकैती वाले दिन भी अपनी आदत के हिसाब से बब्बन खिड़की खोलकर उसमें से होता हुआ गली में आया और सीधा इमली के आहते की तरफ रुख किया.


( सारी कहानी काफी लम्बी होती जा रही है ,तो आज यहीं विश्राम लेते हैं,बाक़ी बहुत जल्दी पेश करूंगा. कृपया अपनी बहुमूल्य राय अवश्य लिखें, मुझे अच्छा लगेगा.धन्यवाद.)