Saturday, January 22, 2011

BAIJNATH--3

पिछली किश्त में मैं अखाड़े का प्रसंग अधूरा छोड़ बैठा था.
  अखाड़ा बनने की   भी एक कहानी है.
तो जहां पण्डित जी और बैज नाथ जी का संवाद जल्दि-जल्दि में  अधूरा  छूट गया था वहीं से शुरू करते हैं:          
बै. ना.:पण्डित जी, मैं किसी ज़िम्मेदारी से नहीं कतराना चाहता,मैं सिर्फ बदमज़गी से बचना चाहता हूँ.  
.  जी :इस मामले में मैं पूरी तरह से तेरे साथ हूँ और तेरी हर बात से सहमत भी  हूँ, इसलिए बिना किसी बात की चिंता किये तू तो बस अब ,'' हाँ  '', बोल दे ताकि मैं लाला लोगों से कह के अखाड़ा बनवाने का काम शुरू करवाऊं.        
बै. ना.:पण्डित जी इस बारे में,यदि आपकी आज्ञा हो तो, मैं कुछ अर्ज़ भी करना चाहता हूँ. 
प.जी.:अरे बाबा, कितनी बार कहूँ ,अब क्या लिख कर  दूं कि   हर बात साफ़-साफ़ बोल ताकि मैं उसके हिसाब से सारे क़ामों का इन्तज़ाम कर सकूं.
बै.ना.:नाराज़ ना हों पण्डित जी,मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि लाला जी लोग मन्दिर के कर्ता-धर्ता हैं और उन लोगों ने मन्दिर के आहते में अखाड़ा बनाने कि खुद ही इच्छा भी जताई है, मेरे विचार से यह  एक शुभ संकल्प है, अब इस से बढ़कर उन लोगों से आप  और क्या चाहते हैं ?
प.जी.:अरे मेरे भोले बाबा, तू क्या सोचता है कि मैं अखाड़ा यूं ही खुले में बनाने को कह रहा हूँ ,अरे भाई  आखिर यह मेरे बैजनाथ का अखाड़ा होगा, वोह बैजनाथ जिसने कुछ ही महीनों कि मेहनत से  लड़कों को पहलवान बना  कर दिखा दिया, तो भाई उसका अखाड़ा भी तो उसकी शान के हिसाब से   शानदार होना चाहिए. 
बै. ना.:पण्डित जी , मैं यह बात बहुत अच्छी  तरह से जानता हूँ कि आप मुझे अपने बच्चों  कि तरहचाहतेहैं ,और इसीलिये हाथ  जोड़कर  ,
आपसे यह प्रार्थना करना चाहता हूँ कि इस ज़रा सी कामयाबी के नाम पर मुझे इतना ज़्यादा ऊपर मत चढाओ कि अगर कहीं गिर पडूँ तो संभल ही ना पाऊँ. 
प.जी.:अच्छा मज़ाक नहीं पर  ज़रा समझने की कोशिश कर,कालेज वाली बात अभी ताज़ी-ताज़ी है,सब तेरे से बहुत खुश हैं इसीलिये  मैं इस मौके का पूरा-पूरा फ़ायदा उठाना चाहता हूँ.जब मन्दिर  की कमेटी वालों ने खुद आगे आ कर मेरे से तेरी राज़ी पूछने और फिर यहाँ पक्का अखाड़ा बनवाने की बात की तो मैंने बिना वक़्त गंवाए उनसे अखाड़े के ऊपर, अखाड़े के उस्ताद के रहने के लिए एक, एक कमरे का सैटबनवाने की भी मंज़ूरी ले ली.

बै.ना.: माफ़ करना पण्डित जी,पर यही तो मैं नहीं चाहता, अखाड़ा बने यह तो बहुत अच्छी बात है,लड़के आयें-कुछ अच्छा सीखें यह और भी अच्छी बात होगी ,मेरी दिली तमन्ना भी यही है,पर यह सब चन्द साहूकारों के दम पर हो ,मुझे नहीं अच्छा लगता,छोटे मुंह बड़ी बात कह बैठा हूँ पण्डित जी,इसलिए माफ़ी भी चाहता हूँ.  
प. जी. :  भैया, सब ठीक है पर सोच कब तक तू यूं ही भटकता रहेगा,इसी बहाने तेरा एक पक्का ठिकाना बन जाता. 
          
                 (पिछले कुछ महीनों से बैजनाथ जी मन्दिर के पीछे वाली गली में रघु तेली के घर में ऊपर चौबारे में डेढ़ रुपये महीना किराए पर रह रहे  थे.)




बै.ना.:पण्डित जी, आप मेरे बड़े हो, मुझे अपना समझते हो, इसलिए यह सब सोच रहे हो,इस  कस्बे   में मैं  आपको अपना  इकलौता माई-बाप भी मानता हूँ, पर आपके आगे हाथ जोड़ कर कहता हूँ  कि मुझे आप मेरे तेली वाले चौबारे में ही रहने दो,मैं सच कह रहा हूँ कि मैं  वहाँ बहुत मज़े में हूँ,मेरी तरफ से आप बिलकुल निश्चिन्त हो जाओ.

प.जी. एक तरफ माई-बाप कहता है दूसरी तरफ निश्चिन्त होने को कहता है,कैसे हो जाऊं निश्चिन्त और वोह भी तेरे जैसे फक्कड़ से ? अच्छा  बता तो,पिछले हफ्ते वो जो रज़ाई बनवाई थी  वो कहाँ गयी ?

बै.ना.:वो तो ---पण्डित जी,

प.जी.: क्या वो तो - वो तो , मैं सब जानूं बेटा , राधे बतावे था वो रज़ाई तूने जुम्मन  को दे दी.

बै. ना.: आप को तो मालूम है पण्डित जी उसकी बीवी के बच्चा हुआ है  ,कल यहीं आया था बड़ा दुखी था बेचारा और रो-रो के मुझे बता रहा था कि बीवी जापे में है और ओढ़ने को घर में  ढंग की कोई रज़ाई भी नहीं  है.मेरे से बिचारे का रोना बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने उस की बीवी-बच्चे के लिए वो रज़ाई दे दी.

प.जी. तू मुझे एक बात बता,वो जुम्मन नाई सारी खतौली छोड़ कर तेरे पास ही अपना दुखड़ा रोने क्यूं आया, क्या तू उसके बच्चे का बाप है? अरे, वो साला तो हर साल नए कैलैंडर की तरह औलाद पैदा करता है, रोज़ शाम को विस्की पीने के लिए उसके पास पैसे आ जाते हैं तो एक रज़ाई बनवाने में उसकी मां मर रही थी,जो तेरे पास रोने आ मरा ? अरे भोले नाथ,पिछले हफ्ते  उसने तेरी नयी रज़ाई देख ली थी और वो तेरी दानी-दाता वाली  आदत को भी जानता है,सो आ गया रज़ाई मांगने और तूने भी उठा के दे दी बिना आगा-पिच्छा सोचे.और फिर कहता है निश्चिन्त हो जाओ.कैसे हो जाऊं निश्चिन्त?

बै.ना.:पण्डित जी, आप भी ना कमाल ही करते हो, कहाँ की बात कहाँ ले गए,अच्छा अब यह सब छोडो और मुद्दे की बात पर आओ.तो अब सब से  पहले आप अखाड़ा शुरू  करवाइए. जब अखाड़े में बच्चे लोग आने लग जाएँ ,अखाड़ा जम जाए तब  बाकी के  खर्चों की सोचिएगा. 
हार कर पण्डित जी चुप लगा गए और फिर बोले ,'' भैया,जैसा तुझे जंचे वैसा कर और बिना देर-दार किये अखाड़ा शुरू कर दे   ''.
      पण्डित जी की अपनी कोई आस-औलाद नहीं थी.उनकी पत्नि बिना उन्हें कोई संतान की सौगात दिए एक दिन अचानक ही इस  फानी दुनिया से कूच कर गयी थी. शरीर उसका , हमेशा से मेहनती  स्वभाव की होने के     कारण, स्वस्थ और कसा हुआ था,ना कोई हारी ना बिमारी  शाम को अच्छी भली थी. रोज़ की तरह घर के सारे काम धन्दों से निबट के दो घडी बूढ़ी सास के पास भी आन बैठी थी और फिर रात को जो सोई तो सोई ही रह गयी, उठी ही नहीं .क्या जाने क्या हुआ ,कोई कुछ ना समझ सका.पण्डित जी बस अपना माथा पीट कर रह गए.
पण्डित जी की मां उठते-बैठते उन्हें रोज़एकहीबातकहतीं,''सीताराम,चालीस साल का मर्द बुड्ढा नहीं कहलाता,और फिर  बेटा, अब मेरे से घर का काम-धन्दा भी नहीं संभलता, बहू ने मुझे कभी किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने दिया,मेरी आदत ही नहीं रही घर का काम-धन्दा संभालने की .अब तू ही बता एकदम अचानक से मैं कैसे ये सब संभालूं ? बेटा, मेरी बात मान ले और फिर से शादी करके घर में एक बहू ले आ''.
  असलियत में तो जब से बहू परलोक सिधारी थी पण्डित जी ने घर के सारे काम-काज के लिए एक महाराजिन का इंतजाम कर दिया था.जो  सुबह की आई घर का सारा काम-काज  निपटा कर ही शाम के बाद अपने घर वापिस जाती थी.
पर फिर भी,कब क्या बनेगा,गाय का  सानी-पानी हुआ या नहीं,भण्डार की  कुण्डी कहीं खुली तो नहीं रह गयी,मुई बिल्ली मौका पाते ही दूध के बर्तन में मुंह मार लेती है. 
 ना  जाने ऐसी   कितनी   चिन्ताएं थीं जो अम्मा को बैठे -बैठे ही थका देती थीं.
अतः पण्डित जी रोज़ अम्मा का  आलाप सुनते और रोज़ उसे अनसुना कर के उठ जाते.
बहू की  मौत का सदमा झेल कर पण्डित जी अभी संभले ही थे कि उन  पर जैसे वज्रपात ही हो गया




  उनकी छोटी बहन  परमेसरी विधवा हो गयी .उसके पति को सांप ने काट खाया था, शामको गेंहूं के खेत में पानी लगा रहा था जब सांप के रूप में  काल आन पहुंचा था.अगर घर के लोग थोड़ी सी भी  समझदारी से काम लेते और गाँव के ओझा के पास जाने की बजाये उसे खतौली के अस्पताल में ले आते जो गाँव से सिर्फ दस-बारह मील की दूरी पर ही था ,तोशायद है की एक बार को  डाक्टरी दवाई का लिहाज मानते हुए काल भी बख्श देता पर जैसा कि हमेशा  से होता आया  है इन लोगों ने भी  अपनी गलती को बेचारे  भगवान् जी के मत्थे मढ़ते हुए  लम्बी- लम्बी सांसें भरींऔर  ,''जैसी भगवान् की मर्ज़ी'',  कहते हुए चुप कर के बैठ गए.
 पति की मौत के बाद सारे घर की आँखों की तारा  परमेसरी  ससुराल में अचानक सब को कांटे सी चुभने लगी.जब सास और जेठानी का कड़वा व्यवहार दिनबदिन बढ़ते-बढ़ते इतना  घिनौना   हो  गया  कि बर्दाश्त के भी बाहर हो गया  तो परमेसरी  अपने दोनों बेटों को लेकर भाई सीताराम के घर खतौली चली आई .उस वक़्त बड़ा घनश्याम पांच साल का था और छोटा राधेश्याम सिर्फ तीन का.
पण्डित जी ने सब अपने और अपनी बहन के भाग्य का दोष मानते हुए हाथ जोड़ कर नीयति के आगे सर झुका दिया और परमात्मा से दुआ मांगी कि वो उन्हें इतनी शक्ति दे कि वो अपनी जवान बहन और उसके दोनों अबोध बच्चों का अपनी सन्तान कि तरह पालन-पोषण कर सकें और सचमुच प्रभु ने उन्हें इस पुनीत कार्य को अच्छी तरह से करने के लिए  पूरा आशीर्वाद प्रदान  किया.
आज बारह साल बाद सत्रह साल का  घनश्याम सैकिंड डिविज़न में बोर्ड की दसवीं क्लास पास करके सीताशरण कालेज में ग्यारहवीं क्लास में और उसी कालेज में राधेश्याम नौवीं क्लास में पढ़ रहा था.
 ये दोनों भाई मन्दिर के पीछे पुजारी के परिवार के लिए बनाए गए हिस्से में ही रहते थे.सुबह-शाम दोनों वक़्त भोजन के लिए या कपडे आदि बदलने के लिए रोज़ माँ और नानी की हाज़री भरने ज़रूर पहुँच जाते थे.वैसे एक तरह  से दोनों भाई होस्टल लाइफ ही जी रहे थे,पर दोनों भाई खूब मस्त स्वभाव के होने के कारण बहुत मज़े में वहाँ रहते थे.
पण्डित जी रोज़ शाम को आरती आदि से निपट कर शहर में ही अपने घर चले जाया करते थे,और फिर अगले रोज़ सुबह ही मन्दिर में आते थे.
 राधेश्याम जिसे हम सब राधे कह कर बुलाते थे, मेरे साथ नौंवीं कख्या में पढ़ता था,वो क्योंकि घनश्याम को भाई साहब कहता था तो हम सब भी घनश्याम को,जो की वैसे भी हम सब से बड़ा था,भाई साहब ही कह कर बुलाते थे.अगर कभी हम लोगों में से कोई गलती से केवल भाई ही कह बैठता तो घनश्याम बाबू नाराज़ हो जाते,और एक दम से टोकते,कहते,''क्यों बे,भाई के साथ साहब लगाते ज़बान घिसती है?''और गलती करने वाले को बाकायदा  दोबारा से भाई साहब कहना पड़ता और गलती के लिए माफ़ी भी मांगनी पड़ती.पर भाई साहब थे भी सही माएने में हमारे ग्रुप के लीडर.जहां भी ज़रुरत पड़ती अपने बड़े होने का फ़र्ज़ निभाने से कभी नहीं चूकते थे.बैजनाथ जी जब पहली बार खतौली पहुंचे थे तब पण्डित जी से मिलने के लिए मन्दिर में घुसने से पहले उन्होंने इन्हीं के सर पर प्यार से हाथ फेरा था.और तभी से हमारी पूरी मंडली भाई साहब के नेतृत्व में बैजनाथ जी की  ख़ास  मुरीद बन चुकी थी.हमारी मंडली में मेरे और   इन दोनों भाइयों के अतिरिक्त हमारे कुछ दोस्त और भी थे. यह सभी हमारे साथ नौंवीं क्लास के ही विद्यार्थी  थे. 


एक था जग्गू , मंझौला कद पतला-दुबला  और फुर्तीला बदन .रंग गन्दमी और चेहरा ऐसा की हमेशा देखने से ऐसा लगता जैसे हंस रहा हो. पूरा नाम था जगन्नाथ   बजाज,पर सब जग्गू  कह कर ही बुलाते थे.आगे चलकर बाद में वो, क्या तो कसरत,क्या तो पहलवानी के दांव पेंच और क्या तो लाठी चलाना हर मामले में घनश्याम भाई साहब की बराबरी करने लग गया था.बड़े बाज़ार में उनकी बजाजे की दुकान थी.जहां आस-पास के गाँवों से दुकानदार लोग  थोक में कपड़ों के थान के थान खरीद कर ले जाते थे. दुकान पर उसके बूढ़े दादा जी और उसके पिता जी के साथ बारहवीं क्लास की बोर्ड की परीख्या में तीसरी बार  फेल हो जाने के बाद से उसका बड़ा भाई   जयदेव भी बैठने लगा था.पता नहीं क्यों पर जयदेव  हमारी पूरी मंडली से बड़ी खार खाता था .  जग्गू के मुकाबले उसका डील-डौल काफी बड़ा था.हम सब उसे बैल-बुद्धि कहते थे और वो आने-बहाने जब मौका मिलता हम लोगों में से किसी ना किसी को चपत लगाने से नहीं चूकता था.यह अलग बात है कि शिकायत लगाए जाने पर उसकी भी उसके पिता जी द्वारा अच्छी सिकाई होती थी. पर परेशानी यह थी कि शिकायत करने की आदत के बैजनाथ जी सख्त खिलाफ थे.उनका कहना था कि हर मामले से खुद निपटना सीखो,लेकिन अगर बिलकुल ही मामला अपने हाथ से बाहर जाता दिखाई दे तो किसी  दूसरे कि मदद लेने  में कोई हर्ज़ नहीं.
दूसरा था हुकमा,यानि हुकम चन्द बंसल .वो हर फन मौला था.हर काम के इन्तजाम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता था.बड़े प्रेम से मालिश करता और फिर कसरत करने में जुट जाता.कुश्ती  हलकी-फुलकी ही करता लेकिन लाठी चलाने  से बहुत कतराता था. उनका  काफी लंबा-चौड़ा तेल का कारोबार था.उनका घर भी बहुत बड़ा था.उनका अपना तेल निकालने का बहुत बड़ा कारखाना था,जहां तेल निकाल कर कनस्तरों में भरा जाता और कनस्तरों को सील करके बड़े-बड़े गोदामों में, ट्रकों में लाद  कर  दिल्ली भेजने के लिए, रख दिया जाता. उसके पिताजी को ,जिन्हें हुकमा बापू जी कह कर बुलाता था ,सारी खतौली  रघु तेली के नाम से जानती  थी.उस सस्ते ज़माने में जब लखपति होना मायने रखता था,तब रघु तेली लाखों का मालिक बताया जाता था. आज मैं सोचता हूँ तो हैरान होता हूँ कि फिर भी लोग-बाग़ उसे रघु तेली के नाम से ही जानते -पुकारते थेऔर वो लोग इस तरह पुकारे जाने पर बुरा भी नहीं मानते थे. मेरे ख्याल से कभी उनके पुरखों का  एक-आध तेल का कोल्हू रहा होगा जिसकी वज़ह से उन्हें तेली कह कर पुकारा जाता होगा ,  पर आज जब उनके बाप-दादा ने मेहनत करके  इतना बड़ा तेल का कारखाना और लम्बा-चौड़ा कारोबार खडा कर रखा था तब भी उन्हें तेली कह कर पुकारना बड़ा अजीब सा लगता है .पर लोग-बाग़ थे कि आज भी उन्हें तेली ही कहते थे.हमारे दोस्त हुकम चन्द बंसल  को अपने पैसे या बड़े कारोबार का कोई घमण्ड नहीं था. 
तीसरा था लून्जू.असली नाम निरंजन .वो कुछ ज़्यादा ही लंबा था,और हाथ हमेशा ढीले-ढाले  शरीर कि बगल में दोनों ऑर  लटकते रहते थे,इसीलिये  हम सब उसे लून्जू कहते थे, वैसे निरंजन बड़ा चुस्त था,उसके माता-पिता का गाँव में किसी हादसे में स्वर्गवास हो गया था और अब खतौली में अपने बेऔलाद मामी-मामा के पास पिछले बारह बरस से रहता  था. मामा-मामी ने उसके माता-पिता की मौत के  तुरन्त बाद जब वो अभी सिर्फ दो ही साल का अबोध बालक था उसे बाकायदा कोर्ट में जाकर गोद लिया था.उसके मामा की रेडियो की दुकान थी .लून्जू को वायरलैस का बड़ा शौक था और उसके चक्कर में वो अपनी स्कूली पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाता था.पर उसकी मामी उसकी इन कारस्तानियों को देख-देख कर बड़ी खुश रहती थी.उसके लेखे उसका बेटा बहुत बड़ा इंजीनिअर बनने वाला था.बैजनाथ जी से वोह हमेशा यही कहता था कि,''बड़े भाई ,मुझे ऐसी लाठी चलाना सिखा दो कि पांच-सात से तो अकेला ही निपट लूं''.और बैजनाथ जी हंस कर उसे हमेशा ही यही कहते कि ,''प्रेक्टिस करो,खूब प्रेक्टिस करो.
इस तरह छः लड़कों कि हमारी एक मज़बूत मंडली थे
जब पण्डित जी ने बैजनाथजी को अपनी इच्छानुसार अखाड़ा  बनाने और अपने हिसाब से उसका संचालन करने कीआज्ञा दे दी तो अगले दिन शाम को बैजनाथ जी  ने हम सब को मन्दिर के चबूतरे पर अपने साथ बैठाया और अखाड़ा  कैसे शुरू किया जाए इस पर चर्चा करने लगे.
बैजनाथ जी के पूछने पर सबसे पहले लून्जू बोला,''बड़े भाई ,मैं अपनी दुकान से मामा जी को कह कर फिलिप्स का एक बड़े वाला रेडियो ले आता हूँ ,जब उसपर गाने बजेंगे तो उन्हें सुनने के लिए काफी लोग इकट्ठे हुआ करेंगे,और  यहाँ अखाड़े पर खूब रौनक  रहा करेगी''.
"अखाड़े में रेडियो क्या काम ? बड़े भाई आप को चिंता करने की बिलकुल भी ज़रुरत नहीं,मैंने कल आपको पण्डित जी से बात करते सुना था,रात को मैंने बापू जी से बात भी कर ली है,आप तो  बस ये बता  देना कि क्या-क्या करना है ,बापू जी कह रहे थे,कि वह फजलू मिस्त्री को आपके पास भेज देंगे ,वो सब बढिया से बना कर तैयार कर देगा'',हुकमा बोला.
जग्गू   बोला,यूं तो मैं पिताजी से कह के सारा काम करवा सकता  हूँ पर बड़े भाई कि बातों से मुझे कल ऐसा लगा था कि बड़े भाई अभी कोई ज़्यादा खर्चा करना नहीं चाहते''.
''बड़े भाई,मन्दिर के स्टोर में दो कस्सी और दो फावड़े रक्खे हैं, आप कहो तो मैं उन्हें उठा लाता हूँ ,और हम सब मिल कर पहले अखाड़े  की खुदाई का काम शुरू कर देतें हैं''.घनश्याम भाई साहब बोल उठे.
मैं और राधे सब की बातें सुनते हुए बारी-बारी से सब का मुंह ताक रहे थे.
बैजनाथ जी हम दोनों की तरफ देख कर बोले,क्यों भाई,क्या बात है ,तुम दोनों ने कुछ नहीं कहना?''
राधे बोला,''भाई साहब ,मैं कस्सी फावड़े उठा लाऊँ?काम शुरू कर देते हैं.
बैजनाथ जी हंसने लगे और फिर मुझसे बोले,''हां भाई ,अब तू भी तो कुछ बोल''.
मैं बोला,''और कुछ बने या ना बने पर ऐसा कुछ तो करना ही पडेगा कि आते-जाते हुओं से अखाड़े की थोड़ी सी आड़ हो जाए .
असल में मन्दिर के सामने बहुत बड़ा और चौकोर  खुला आहता था,जिसके आखिर में दाईं ऑर कूआं था,  कुएँ को घेरे हुए एक खासा बड़ा चबूतरा था जिस पर चढ़कर कुएँ से पानी खींचा जा सकता था.और चबूतरे के बाद उसके दायीं ऑर  एक कोई  बारह फुट लम्बा और आठ फुट चौड़ा बरामदानुमा कमरा था जहां सब नहाने-धोने का अपना काम आराम से बैठकर करते थे,जिससे नहाते-धोते वक़्त पानी के छींटे कुएँ में नहीं पड़ते थे. मन्दिरसेलगीहुईआहते के  दायीं ऑर मन्दिर की धर्मशाला थी . धर्मशाला की  बाजू वाली दीवार और कुएँ के कमरे की बाजू वाली दीवार के बीच कोई पंद्रह-बीस फुट का गलियारा था. शहर कि तरफ से  मन्दिर में आने वाले सभी भक्त, जिनमें ज्यादातर  स्त्रियाँ  और लडकियां  ही होतीं थीं, इसी रास्ते से होकर आते थे. इसके अतिरिक्त आहते के बांयीं ऑर एक लम्बी और ऊंची दीवार थी जिसमें एक दरवाज़ा था जो जी.टी. रोड कि तरफ खुलता था,शहर से जी. टी. रोड कि तरफ जाने के लिए वो शोर्ट कट भी था इसलिए सारा दिन उधर से  लोगों का आना-जाना लगा रहता था.जब अखाड़े में हम लोग मालिश करते, कसरत करते या पहलवानी करते तो सब कुछ सब लोगों के एकदम सामने होता जो मेरीसमझ में बहुत गलत बात होती.
सबकी बातें सुनने के बाद बैजनाथ जी बहुत खुश हुए और बोले,''सुनों मेरे पहलवानों,तुम सब की बात सुनकर एक बात तो बिलकुल साफ़ हो गई कितुम सब भी अखाड़ा शुरू करने के लिए बहुत बेचैन हो, जो बहुत अच्छी बात है ,तो तुम्हारे उत्साह कि कद्र करते हुए कल शनिवार को हम अखाड़े कि शुरुआत करेंगे.कल शनिवार है यानि आधे दिन का स्कूल.कल दोपहर को एक बजे छुट्टी हो जायेगी तो दोपहर को ढाई बजे तक अपने-अपने माता-पिता से बाकायदा इजाज़त लेकर यहाँ पहुँच जाना.मैं आरती के बाद पण्डित जी से मिलकर उन्हें सब बताऊंगा और उनसे प्रार्थना करूंगा कि कल दोपहर तीन और चार के बीच अखाड़े का भूमि पूजन करवा दें ताकि         
रविवार को हम सब मिलकर अखाड़ा खोदने का काम कर सकें.ठीक है''?
सबने मिलकर नारा सा लगाते हुए कहा ,''ठीक है''. 


                    ( अखाड़े कि बाकी कहानी अगली किश्त ,बैजनाथ--४ में पढ़ना)


     
        

Thursday, January 13, 2011

बैजनाथ --2


बैजनाथ का खून कैसे हुआ ? क्यूं हुआ? किसने   किया या करवाया ? वगैरा बहुत से सवाल हैं जो जवाब मांगते हैं,और जब तक वाजिब जवाब न मिल जाए जवाब मांगते ही रहेंगे. उस वक़्त  भी इन सवालों ने बहुत दिनों तक खतौली के लोगों को परेशान किये रखा था. अब जब सवाल हैं तो उनके जवाब भी होने लाज़मी हैं और इन सवालों के जवाब भी थे जो देर-सवेर सामने आने ही थे और आये भी सही, चाहे देर से आये पर आये. 
उन जवाबों की कहानी मैं  बाद में  बताऊंगा ,क्योंकि उस से पहले और बहुत सी बातें हैं जो मैं कहना चाहता हूँ ,हालांकि उन  सवालों के जवाब भी कोई कम दिलचस्प नहीं हैं . 
बैजनाथ  मेरी किशोरावस्था के समय का  मेरा परम प्रिय एवम जीवन्त हीरो रहा है.मैं और मेरे दूसरे यार दोस्त उसके एक इशारे पर कुछ भी करने को सदा तत्पर रहते थे. वो था ही ऐसा शानदार बन्दा कि जो उस से एक बार मिल-जुल लेता था सदा के लिए उसी का होकर रह जाता था .
शेक्सपियर कि यह उक्ति उस पर बड़ी सटीक बैठती है  - वह आया , उसने देखा और उसने जीत लिया.
रंग चाहे उसका सांवला ही था पर उसमें एक कशिश थी, चेहरा गोल था जो प्यार और ममता से भरा नज़र  आता था.उसकी बड़ी बड़ी काली और चमकीली आँखें जिधर घूम जाएं बाँध कर रख लेती थीं .चौड़ा माथा और उस पर काले घने घुंघराले  बाल उस के सर पर एक ताज की तरह सजते थे . कद उसका दरम्याना था पर  शरीर गंठा हुआ था, और चाल, सच कहता हूँ , हम सब लड़के उनकी मस्ती भरी चाल की नक़ल करने की कोशिश किया करते थे.
हम सब उसके भक्त भी थे और चेले भी.वह हम लड़कों का बॉडी बिल्डिंग का उस्ताद था पर हम सब उसे बड़े भाई के नाम से बुलाते थे . जैसा कि मैं पहले पार्ट में ही बता आया हूँ कि रोज़ी रोटी कमाने के लिए बड़े भाई शहर के  सीता शरण कोलेज में मामूली साइकिल स्टैंड अटेंडेंट के रूप में काम किया करते थे  . करीब छः माह  बड़े भाई ने साइकिल स्टैंड पर  अटेंडेंट के पद पर काम किया पर फिर उन्हें वोह काम छोड़ना पड़ा.यह नौकरी उन्हें मेरे  ही कारण छोडनी पड़ी थी . अब फिर गड़बड़ वाली  बात हो रही है , अभी नौकरी शुरू हुई नहीं कि ख़त्म होने की बात भी होने लगी . तो वो सब बातें बाद में  वक़्त आने पर  करूंगा.

हमारा कालेज कोएड  कालेज था . उसी हिसाब से साइकल स्टेंड की व्यवस्था भी थी. उसी साइकल  स्टैंड में शुरू में ही एक छोटा हिस्सा लड़किओं के लिए अलग से सुरख्यित था. फिर भी लड़किओं को साइकल खड़ी करने और वहाँ से निकालने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था.ज्यादातर दिक्क़तें लड़कों की वज़ह से ही होती थीं.लड़के बड़ी मासूमी से लड़किओं की साइकिल के आगे अपनी साइकिल  जान-बूझकर ऐसे अड़ा देते थे कि जैसे गलती से फंस गयी हो,  और लड़किओं  को साइकिल निकालने में बड़ी परेशानी होती थी तब वो शैतान  लोग लड़कियों की परेशानी का मज़ा लेते थे.

बैजनाथ जी ने पहले दिन ही जब लड़किओं की परेशानी का नज़ारा देखा तो उन्होंने व्यवस्था में अपनी तरफ से ही एक बिलकुल नया फैसला लेकर काम शुरू कर दिया. 
अगले दिन जब बच्चे कालेज पहुंचे तो नज़ारा बदला हुआ था. बैजनाथ जी ने लड़किओं से कहा कि वह लोग अपनी-अपनी साइकलें स्टैंड के बाहर ही एक तरफ खड़ी कर दें और टोकन लेकर  अपनी-अपनी क्लास में  चली   जाएँ ,उनकी साइकलों को बाद में वह खुद ही  स्टैंड के अन्दर लगा देंगे और साथ ही उन्होंने लड़किओं से यह भी कहा कि शाम को कालेज से वापसी पर भी उन लोगों को स्टैंड के अन्दर आने कि ज़रुरत नहीं है, जो भी लड़की आये वो बाहर से  ही बैजनाथ जी को अपना टोकन पकड़ा दे बैजनाथ जी खुद उसकी साइकिल निकाल कर बाहर ले आयेंगे और लड़की को बिना किसी परेशानी के साइकिल पकड़ा देंगे.
हालांकि बात बहुत ही मामूली सी है पर इस से कालेज में तो जैसे तूफ़ान ही आ गया. जहां शैतान लड़के मन मसोस कर रह गए वहीं  लडकियां बहुत खुश हो गईं.हाँ दो-एक लडकियां जो इस छेड़खानी से मन ही मन खुश होतीं थीं वो ज़रूर मायूस हुई होंगी.
जब कालेज में बैजनाथ जी द्वारा किये गए इस इंतज़ाम कि खूब तारीफ़ होने  लगी तो चौबे जी भी बहुत खुश  हुए और उन्होंने सबके सामने बैजनाथ जी की खूब बढ़-चढ़कर तारीफ़ की. धीरे-धेरे यह छोटी सी बात खतौली शहर में भी चर्चा का विषय बनी और  साथ ही खतौली में उनका सन्मान बढ़ाने वाली  भी बनी.
खतौली ,जैसा कि मैंने पहले ही कहा है , उन दिनों एक छोटा सा ही कस्बा था जहां हर बात सब लोगों में बहुत जल्दी चर्चा का विषय बन जाती थी.
उन दिनों टी. वी. जैसी तो कोई वाहियात चीज़   थी नहीं , लोग-बाग़ रेडिओ सीलोन पर फ़िल्मी गाने सुनकर और हर बुधवार को बिनाका गीत माला सुन-सुन कर अपना दिल बहलाया करते थे. श्री अमीन शयानी बिनाका गीत माला प्रस्तुत किया करते थे. आज-कल जैसे टी. वी. के सीरियल्ज़ की चर्चा होती है, वैसे ही उन दिनों बिनाका गीत माला चर्चा का विषय रहती थी,कौनसा गाना पहले पायेदान पर आया और कौन सा बाद के, यह चर्चा,खूब ज़ोरों से होती थी.  श्री सुनील दत्त , बलराज के नाम से फ़िल्मी गानों का प्रोग्राम पेश किया करते थे जो बड़ी दिलचस्पी से सुना जाता  था , सुनील दत्त  जी बाद में रेडियो सीलोन छोड़कर फिल्म इण्डस्ट्री में आये.  उनदिनों  तो अभी  विविध भारती भी शुरू नहीं हुआ था  केवल रेडियो सीलोन ही एक रेडियो स्टेशन था जिसे सुनकर सब खुश हो लिया करते थे.
 अगर कहीं से कोई  नया किस्सा छेड़ दिया जाता तो थोड़े  ही दिनों में अफ़साना बनकर गलियों-गलियों होता हुआ घर-घर में पहुँच जाता और असलियत खुल जाने पर,जो कि बहुत जल्दि  खुल भी जाया करती थी ,किस्सा छेड़ने वाले की खूब किरकिरी भी होती थी. 
  साइकिल स्टैंड वाला मामला बड़े भाई का पहला कारनामा था जिसने उनकी एक अलग  ही पहचान बना दी थी. तो उसकी  चर्चा  ना होती ,ऐसा कैसे हो सकता था. सो चर्चा हुई और खूब हुई.

उसके बाद की बात यह है कि,
कालेज में  एक छोटा सा अखाड़ा भी था जहां जब मैच आदि होने होते थे तब  लड़के प्रैक्टिस किया करते थे. पहले कभी  शायद कोई प्रोपर कोच आता रहा होगा जिसने यह अखाड़ा बनवाया होगा ताकि जिन  लड़कों को  रूचि हो उन्हें ठीक से तैयार किया जा सके. पर अब लड़के खुद ही अखाड़े में जोर- अजमाइश किया करते थे हाँ कभी-कभी  कालेज के पी.टी. आई. साहेब कोचिंग के नाम पर उन लोगों को कुछ छोटी-मोटी  बात बता देते थे.पर  हमारे कालेज के लड़के कुश्ती में  कभी कोई इनाम वगैराह नहीं जीत पाते थे.
एक दिन बड़े भाई ने पी. टी. आई. साहेब से पूछा कि यदि उन्हें ऐतराज़ न हो तो वह भी लड़कों के साथ थोड़ा जोर-आज़माइश कर लिया करें . किसी को भी कोई ऐतराज़ क्यों होना था. और इस तरह बड़े भाई कालेज के अखाड़े में भी घुस गए. 
थोड़े ही दिनों में धीरे-धीरे अखाड़े की तो  जैसे हवा ही बदल गयी. जहां पहले सिर्फ दो या तीन  ही लड़के अखाड़े में दांव - पेंच खेलते नज़र आते थे वहीं अब अखाड़े पर अच्छी -खासी भीड़ नज़र आने लग गयी. बड़े भाई खुद लंगोट बाँध कर लड़कों के साथ अखाड़े  में उतारते और उन्हें नए से नए गुर सिखाते. अखाड़े पर भी बाकी खेल के मैदानों की तरह खूब हो हल्ला और हंगामा होने  लगा. 
जब जिला स्तर पर खेलों का आयोजन हुआ तो पहली बार हमारे कालेज के लड़कों ने इनाम जीते और कोई एक आध इनाम नहीं,बल्कि अलग -अलग केटेगरीज़ में कुल मिला कर बारह  मैडल हमारे कालेज के लड़के जीत कर लाये. यह अपने आप में एक रिकार्ड ही था.कालेज में ही क्या पूरे खतौली कस्बे में बैजनाथ जी के नाम का डंका बजने लगा. उसके बाद कमिशनरी लैवल पर भी तीन लड़के गोल्ड मैडल जीत कर आये. 
पहले साइकिल स्टैंड वाला किस्सा और फिर कालेज के लडकों का पहली बार मैडल जीतना अपने आप में बैजनाथ जी के लिए बहुत अधिक लाभदायक सिद्ध हुए . 
एक बार रविवार के  दिन जब बड़े भाई मन्दिर के आहते में चबूतरे पर बैठे थे तब पण्डित जी उनके पास आये और बोले,'' भाई बैजनाथ, तूने कालेज के छोरों को  तो असली पहलवान बना दिया, बड़ा भला काम किया, पर भाई खतौली कस्बे के छोकरों के लिए भी तो कुछ सोच ,ये सुसरे इधर से उधर फ़िज़ूल में  डोलते फिरते हैं  ना कोई काम ना काज बस  सिर्फ आवारागर्दी.
बड़े भाई ने पण्डित जी के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा ,'' पण्डित जी ,मैं  किस लायक हूँ ,यह तो प्रभू कि इच्छा और आप बड़ों का आशीर्वाद है कि मुझे आप लोगों का प्यार मिल रहा है. फिर भी आप हुकम करें कि आप  के मन में क्या है , मैं  तो आप का  बच्चा हूँ , जैसी आप कि आज्ञा होगी ज़रूर पूरी करने कि कोशिश करूंगा ''.
बैजनाथ जी का जवाब सुनकर पण्डित जी बहुत खुश हुएऔर बोले ,'' सुन भाई , मेरे से शहर के कुछ लाला लोगों ने बात की है,और उन लोगों की यह इच्छा है कि तेरे से पूछा जाए और यदि तू माने तो मन्दिर के आहते  में कुएँ के साथ वाली जगह पर एक अखाड़ा शुरू कर दिया जाए,जहां शहर के लड़के आकर तेरी शागिर्दी में  कुश्ती के कुछ दांव पेंच सीखें और अपनी सेहत  का  भी ठीक से ख्याल रखना सीख  सकें.

यहाँ मैं एक बात बता दूं कि उन दिनों में कबड्डी और कुश्ती का सब लोगों को बहुत शौक हुआ करता था.क्या नौकरी पेशा क्या व्यापारी सब कुश्ती के  दंगल देखने पहुंचे खड़े होते थे.
बैजनाथ जी : पण्डित जी, यह तो  बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी  का काम है,  मैं कैसे कर  पाऊंगा ?
पण्डित जी: तू क्या कर सकेगा क्या नहीं यह तो  तू हमारे पर छोड़ दे  भैया , कौन कितने पानी में है यह हम  अच्छी तरह  से जानते हैं. तू तो इधर-उधर कि बातें छोड़ और मुझे सीधे-सीधे अपने मन कि कह.
बैजनाथ: डरता हूँ कि कहीं छोटे मुंह बड़ी बात ना हो जाए.
प.जी:अरे जब कह रहा हूँ कि सब साफ़-साफ़ बोल तो क्यों फालतू में इधर-उधर कि हांक रहा है.
बैजनाथ जी बड़े संकोच से हाथ जोड़ते हुए बोले,'' पण्डित जी , आप तो अच्छी  तरह से जानते हो कि अखाड़े में बहुत सख्त अनुशासन बनाए रखना होता है ,वहाँ एक तरफ रईसों के बच्चे आते हैं तो दूसरी तरफ मामूली हैसियत के परिवारों के बच्चे भी आते हैं. अपनी-अपनी कद -काठी और मेहनत के बल पर बच्चे का जिस्म उभरता है  और जो जितना अभ्यास और मेहनत करता है वह अखाड़े में उतनी ही कामयाबी पाता है,पर बच्चे इस बात को नहीं समझते , उनका तरुण मन पिछड़ जाने पर  भड़क उठता है. उस वक़्त बच्चों को काबू में रखना आप  अच्छी तरह से जानते हो कि कितना मुश्किल काम है. आगे  निकलते बच्चे का बिना घमण्ड बढ़ने दिए हौसला बढ़ाना, उसे खूब शाबासी देना  जहां उस्ताद का काम है वहीं पिछड़ते बच्चे का मनोबल बनाए रखना और उसे निराशा से बचाए रखना भी उस्ताद के लिए बहुत अहम् ज़िम्मेदारी का काम होता है ''.
प्.जी : तो इसमें परेशानी कि कौनसी बात है ?
बै.ना.: परेशानी तब होती है जब बच्चे अखाड़े कि खुन्दक अखाड़े के बाहर जाकर निकालने की कोशिशें करते हैं, उस वक़्त  कई बार उस्ताद को  बच्चों की भलाई के लिए सख्त कदम भी उठाने पड़ते हैं.और हो सकता है कि वो सख्ती बच्चों के साथ ही साथ उनके मां-बाप को भी पसन्द ना आये,खासकर रईस लोगों को.
बड़े भाई की यह बात सुनकर पण्डित जी कुछ देर के लिए चुप हो गएऔर फिर जैसे कुछ सोच कर बोले,''बात तो तेरी बहुत सही है बेटा  और गम्भीर भी पर  जब इस  काम  को करना ही  है तो इस का कोई ना कोई हल तो ज़रूर तेरे दिमाग  में भी होगा ,लगे हाथ वो भी बता दे,फिर फैसला करते हैं कि क्या करना है और कैसे करना है''.
बै. ना.:पण्डित जी, लड़कों का स्वभाव तो आप मेरे से खूब ज़्यादा अच्छी  तरह से  जानते हैं और फिर जब चार दिन  अखाड़े में भी उतर लेते हैं तो अपने को भीमसेन से कम नहीं समझते इसलिए कब  और कैसे इन लोगों को काबू में किया जाए यह  तो परिस्तिथि के हिसाब से ही फैसला लेना पड़ता है ना.और फिर किसी के भी हों,  उस्ताद के लिए तो सारे  बच्चे बराबर ही होते हैं और दुश्मनी तो किसी से भी नहीं होती ''.
प. जी.: समझ गया तेरा मतलब, बेटा ,जहां तक मैं तेरी बात समझा हूँ ,तेरा मतलब ये है कि बच्चों कि भलाई के लिए अनुशासन ज़रूरी है,और  उसके लिए अखाड़े  के अन्दर या अखाड़े के बाहर जहां भी ज़रुरत पड़े तुझे बच्चों के साथ सख्ती से भी पेश आना पड़ सकता है,और उस वक़्त अगर बच्चों के मां-बाप ने  अपने बच्चे कि तरफदारी करते हुए कोई हरकत की तो लाभ कि जगह नुक्सान ज़्यादा होने का ख़तरा है,जिस से तू बचना चाहता है.
क्यों ,यही बात है ना ?  ----------------

अखाड़ा शुरू हुआ या नहीं हुआ और  आगे बैजनाथ जी ने क्या किया ?

यह सब अगली किश्त यानी बैजनाथ---३ में पढियेगा.
 तब तक के लिए सायोनारा.

Wednesday, January 12, 2011

LOHRI SPL. G.

आप सब को लोहड़ी कि बहुत-२ शुभ कामनाएं और मुबारकें, खुश रहिये ,आबाद रहिये जहां रहिये स्वस्थ रहिये.
वैसे अब तो लोहड़ी एक रस्म भर हो कर रह गयी है. केवल पंजाब में थोड़ा बहुत उत्साह नज़र आता है बाकी सब जगह तो थोड़ी सी आग जलाई ,उसमें थोड़े से फुल्ले और रेवाड़ी डाले और हाथ जोड़ कर रेवाड़ी-मूंगफली खा ली .लो जी हो गई अपनी तो लोहड़ी.
जब हम लोग छोटे थे तब ऐसा नहीं था, उन दिनों हम लोग (छोटे बच्चे)उछलते कूदते हुए  गलियों में भागते और शोर मचाते हुए घर - घर लोहड़ी  मांगने जाते. घर कि बड़ी - बूढ़ियाँ बच्चों को रेवड़ियां, मकई के फुल्ले,मूंगफली और कोई-कोई तो पैसे भी देतीं थीं. बल्कि जिसके घर जाना रह जाता वोह बुरा मानते थे. बच्चों कि इस दिन खूब मौज रहती . भगवान् वोह खुशियाँ सब को फिर दिखाए. HAPPY LOHRI.

Saturday, January 8, 2011

बैजनाथ - 1

यह सारा किस्सा सन 1955 और 1957 के बीच का है.मेरी 14 से  16 बरस कि उम्र  के बीच का.

हम लोग उन दिनों खतौली में रहते थे. वैसे खतौली  में हम लोग 1961                तक रहे थे जबकि 1957 में मैंने वहाँ से हाई स्कूल पास किया था.उन दिनों  यह एक छोटा सा और शांत  कस्बा होता था,आज तो इसका बहुत विस्तार हो गया है.

मेरी कथा का नायक बैजनाथ एक गर्मियों की शाम अचानक ही खतौली में आ पहुंचा था. उस दिन भी और दिनों की तरह   मैं और मेरे कुछ  साथी  शाम के वक़्त  मंदिर के अहाते में चबूतरे पर बैठे आपस में बातचीत और  हंसी-मज़ाक कर रहे थे जब श्री बैजनाथ का आगमन वहाँ हुआ. उस वक़्त मैं  सीता  शरण कालेज में नौवीं क्लास में पढ़ता था. हम लोगों में से किसी ने भी उन के वहाँ आगमन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया ,क्योंकि मंदिर से जुड़ी धर्मशाला में अक्सर कोई न कोई मुसाफिर या सेल्जमैन आता  ही रहता था और कुछ दिन में अपना काम निपटा कर वापिस  भी चला जाता था. बैजनाथ ने अपना हाथ में थामा हुआ जूट का थैला धर्मशाला के बरामदे में दीवार के साथ टिकाया और हाथ मुंह धोने के लिए मंदिर के कुएं की ऑर चला गया. कुआं मंदिर के अहाते में ही मंदिर के सामने दाईं ऑर पर था.कूएँ की पक्की जगत पर कुएँ से पानी खींचने के लिए  रस्सी और उस से बंधी एक बाल्टी हमेशा रखी रहती थी . इस कूएँ का पानी बहुत ठंडा और मीठा था और इसीलिये मंदिर का यह कुआं  ठन्डे कूएँ के नाम से मशहूर  भी था.क्या हिन्दू क्या मुसलमान सभी इस के शीतल  जल से तृप्ति महसूस करते  थे.

 बैजनाथ ने कुएं पर लगी चरखी पर  रस्सी चढ़ाई और बाल्टी कुएं में छोड़ दी.एक छपाक की आवाज़ के साथ बाल्टी पानी से टकराई और गुडुप करके पानी में डूब गयी . बाल्टी का पानी की सतह से टकराना फिर पानी में डूबना और फिर पानी से भरकर पानी से बाहर आना ,विशेष प्रकार की आवाजें पैदा करता है.जिन्होंने रस्सी और बाल्टी से कुएं से पानी खींचा है वह इस अनुभव से  अच्छी तरह से परिचित हैं . बैजनाथ हाथ मुंह धो अपने अंगोछे से मुंह पोंछते हुए हम लोगों तक आया और बोला " राम -राम जवानों ,बता सकते हो ,पंडित जी कहाँ मिलेंगे".हम लोगों को जवानों के नाम से पहली बार किसी ने पुकारा था इसलिए हम सब खुश होकर एक साथ बोल उठे क़ि पंडित जी अन्दर हैं.बैजनाथ ने सबसे आगे और उनके पास खड़े घनश्याम भाई के सर पर बड़े प्यार से अपना हाथ फिराया और  फिर अंग्रेजी में बोले, "वैरी गुड , थैंक यू "और वहीं चौंतरे के पास अपनी चप्पलें उतार कर हाथ जोड़ते हुए मंदिर में घुस गए.हम सब के लिए उनका यूं अंग्रेजी के शब्द बोलना ,दूसरा झटका था. खतौली में उन दिनों हमारे अंग्रेजी के अध्यापक तक हम लोगों से सिर्फ हिंदी में ही बातचीत किया करते थे .अंग्रेजी बस उतनी ही बोलते जितनी क्लास में जरूरी हो.बैजनाथ जी का हमें जवानों कहना ,घनश्याम भाई के सर पे प्यार से हाथ फिराना और फिर अंग्रेजी के शब्द बोलना हम सब को  न सिर्फ चौंका गया बल्कि खुश  भी कर गया और हम सब उनका बाहर आने का इंतज़ार करने लगे.

मंदिर की धरमशाला  में आने और वहाँ से वापिस जाने वाले सब लोगों का पूरा ब्योरा पंडित जी अपने एक रजिस्टर में नोट कर के अपने पास रखते थे.बैजनाथ जी रजिस्टर की खानापुरी पूरी करके बाहर आये और हम सब के पास वहीं  चबूतरे पर आकर बैठ गए. न जाने उन के व्यक्तित्व में ऐसा  कैसा आकर्षण था की हम सब उन के चारों ऑर जुड़ कर आन बैठे . 

बैजनाथ जी ने जैसे हमें  सभी को सम्बोधित करते हुए कहा,"मेरा नाम बैजनाथ है और यहाँ कुछ काम काज की  तलाश में  आया हूँ ,और अब  अगर आप लोग भी अपना अपना परिचय दें तो बढिया रहे." हम सब ने अपने अपने नाम बताये तो बैजनाथ जी बोले,"शाम को इस वक़्त आप सब यहाँ बैठे गप्पें मार रहे हैं ,क्या इस समय आप लोग कहीं कुछ खेलने के लिए नहीं जाते''? इस पर घनश्याम भाई बोले क़ि वैसे तो रोजाना छुट्टी होने के बाद हम लोग  कालेज में ही फुटबाल या हाकि जो चाहें खेलते हैं पर आजकल कालेज की छुट्टियां  होने के कारण यहीं बैठे हैं.

 इतने में पंडित जी मंदिर से बाहर आ गए और बैजनाथ जी की ऑर मुंह करके बोले,''भाई बैजनाथ,यह खतौली तो एक छोटा सा कस्बा है,यहाँ कहाँ काम-काज धरा है ,यहाँ से तो खुद लड़के लोग बाहर जा कर काम ढूंढते  फिरते हैं''.

बैजनाथ जी बोले,''पंडित जी,मुझे कौनसी लम्बी चौड़ी कमाइयां करनी  हैं ,दो वक़्त की रोटी का इंतजाम हो जाय ,अपने को वही बहुत है ''.
इतने में चौबे जी वहाँ आन पहुंचे.चौबे जी की खतौली में मिठाई की दुकान थी .उनका मिठाई  का  अच्छा खासा काम था. दुकान के अलावा उनका एक आदमी बस अड्डे पर और एक आदमी रेलवे स्टेशन पर भी एक टोकरी में भर कर बेसन के लड्डू बेचा करता था. बाकी की  दूसरी मिठाइयों के साथ-साथ उनकी दुकान के बेसन के लड्डू   बहुत मशहूर थे. वैसे हमारे सीता शरण कालेज में चौबे जी की एक केन्टीन भी थी.कालेज में केन्टीन तो चौबे जी  सिर्फ अपना मन खुश करने के लिए चला रहे थे, क्योंकि बच्चों के बीच रहना उन्हें बहुत पसन्द था और इसीलिये कालेज की केन्टीन में सब चीज़ें बाकी जगहों के मुकाबले काफी कम दामों पर मिलती थीं. चौबे जी बच्चों को इतना चाहते थे की शहर की मिठाइयों की दुकान अपने भाई के भरोसे छोड़ कर कालेज के पूरा टाइम केन्टीन में ही रहते थे. कालेज में केन्टीन के साथ-साथ चौबे जी  के पास साइकल स्टैंड का भी ठेका था. 

चौबे जी को जब बैजनाथ जी के बारे में मालूम पड़ा तो वो बोले,'पंडित जी , आपको याद होगा, मैंने आपको बताया था कि कालेज खुलने पर साइकिल स्टैंड संभालने के लिए मुझे एक समझदार आदमी  की ज़रुरत पड़ेगी  और अभी भी मुझे स्टैंड संभालने के लिए आदमी की  ज़रुरत है.

यह सुनकर बैजनाथ जी बहुत खुश हुए और चौबे जी से बोले,''लाला जी , मैं यहाँ बिलकुल ही नया हूँ इसलिए यहाँ मुझे कोई जानता भी नहीं कि मैं किसी की ज़मानत दिला सकूं,पर मैं आपको  इतना  ज़रूर कहना चाहता हूँ कि  यदि आपने मुझे अपनी सेवा का मौका दिया तो मैं अपना काम हमेशा पूरी ईमानदारी से करूंगा .

बैजनाथ जी की बात सुन कर चौबे जी हंसने लगे और बोले ,''भैया, मैं कोई लालाजी वालाजी नहीं हूँ ,छोटा कद और मोटा होने की वजह से इस  गोल-मटोल बन्दे को तुम लालाजी समझ बैठे हो जबकि असलियत में मुझे सब चौबे जी के नाम से जानते हैं और तुम भी मुझे इसी नाम से बुला सकते हो.

बैजनाथ जी बोले ,''गलती की माफ़ी चाहता हूँ चौबे जी और आपसे फिर प्रार्थना करता हूँ कि मुझे सेवा का मौका जरूर दें, आपकी  बड़ी मेहरबानी होगी .

यह सारी बातें सुनकर पंडित जी बोल उठे ,''चौबे जी,वैसे तो इस लड़के को मैं सिर्फ आधे घन्टे से ही जानता हूँ पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि यह कम से कम ईमानदार ज़रूर है''.

चौबे जी बोले,''पंडित जी,आपका तजुर्बा बहुत बड़ा है और जब आपको ही लड़का जंच रहा है तो मैं इस को कैसे  नकार सकता हूँ ''.

फिर चौबे जी बैजनाथ जी से बोले,''वैसे भैया इतनी बातें हो गयीं पर तुमने अपने बारे में तो कुछ बताया ही नहीं. कौन हो ?कहाँ से आये हो? घर-बार छोड़ कर नौकरी करने कि ज़रुरत क्यों आन पड़ी? ''

इतने सारे सवाल एक साथ सुनकर बैजनाथ जी सकपका से गए पर फिर संभलकर बोले,''चौबे जी अब तो मेरा परिचय सिर्फ यही है कि मैं आपका नौकर हूँ वैसे मैं हापुड़ के पास गुलावटी कस्बा है वहीं का रहने  वाला हूँ,घर के हालात  ही कुछ ऐसे बन गए कि मुझे रोज़ी-रोटी कि तलाश में बाहर निकलना पड़ा. प्रभु की कृपा से आपने सहारा दिया है तो यही कह सकता हूँ कि आपको कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगा, बाकी बातें साथ रहते रहते धीरे-धीरे आप सब  जान ही जायेंगे.''
चौबे जी  हलके से मुस्कुराए और फिर बोले ,''ठीक है, बाकी की बातें बाद में होती रहेंगी ,अब ध्यान से सुन लो कि मैं तुम्हें पैंतीस रुपये महीना दूंगा और दोपहर को रोजाना  केन्टीन से एक वक़्त चाय,मंजूर है तो  पंडित जी के सामने हाँ बोलो ,क्योंकि   वैसे तो  कालेज खुलने में अभी दस दिन बाकी हैं पर स्टैंड पर मरम्मत का काफी काम होना है इसलिए  मैं चाहता हूँ  कि जल्दी से जल्दी मजदूर लगवा कर  मरम्मत का काम कालेज खुलने तक पूरा करवा दूं ,तो अब अगर तुम्हारी हाँ है तो कल सुबह 8  बजे कालेज चलने के लिए तैयार मिलना मैं सुबह मंदिर में दर्शन करने आऊँगा तो इधर से ही तुम्हे लेकर कालेज कि तरफ चला चलूँगा ताकि एक बार तुम्हें सारा काम समझा दूं फिर बाद में तो तुम खुद ही सब कुछ आराम से कर ही लोगे.''

यह सुन कर बैजनाथ जी ने मंदिर कि तरफ मुड़ कर हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और बोले ,''मैं आप दोनों का बहुत आभारी हूँ कि आप लोगों ने मुझे इस काबिल समझा पर  सच कहूं तो मैं अभी भी यकीन  नहीं कर पा रहा हूँ कि यहाँ पहुंचे मुझे अभी एक घंटा भी नहीं हुआ कि मेरे सारे काम अपने आप इतनी आसानी से हो भी गए. इसे  प्रभु का  चमत्कार नहीं तो और क्या समझूं''.

इतना बोल कर बैजनाथ जी  चौबे जी के आगे हाथ जोड़े खड़े रह गए.
मज़े कि बात यह है कि काम तो मिला बैजनाथ जी को पर खुश हम सब लड़के लोग हो रहे थे जैसे हमारा ही कोई बहुत बड़ा काम सिद्ध हो गया हो.

उस दिन से आने वाले दो सालों में खतौली के लड़के लोगों का एक बहुत बड़ा ग्रुप उनका मुरीद हो गया था.

पर अचानक एक दिन सुबह हाहाकार ही तो मच गया जब उनके कमरे में से उनकी लाश बरामद हुई.