Saturday, February 19, 2011

बैजनाथ - 5

अगले दिन रविवार को अखाड़े का उदघाटन फिर न हो सका.
सुबह उठे तो शहर की जैसे फिज़ा ही कुछ और थी.
हुआ यूं की लट्टू   दूधिया जो रोज़ाना सुबह -सुबह दो मोहल्ले पार से हमारे घर दूध देने के लिए आता था, आया तो उस दिन भी, परन्तु दूध लेने के लिए उस  दिन मेरे द्वारा पतीला आगे बढाने पर उसमें दूध डालने की बजाये बड़े रहस्यपूर्ण तरीके से कहने लगा,''बल्लू भैया,डाका पड़ गया,''
मैं तब तक नींद की खुमारी में ही था पर जब उसकी बात सुनी तो जैसे बिजली का झटका सा लगा और मैं अनायास ही बोल पड़ा,''कब,कहाँ,कैसे और तुझे  कैसे पता ?
''लो बोल्लो बूज्झे   मन्ने कैसे बेरा , अरे म्हारी आपणी गली में सैय्यद साहब की हवेली पे ही तो गाज गिरी रात ने ,वो तो न्यूँ कहो आपणा बैजनाथ आ कूदया बीच में राम जी बन के ने ,अर नहीं तो के जाणे के-के गजब हो जाता''. 
पहले तो डाके की खबर ने ही मेरे होश उड़ा दिए थे  और फिर  जब उसने बैजनाथ जी का नाम लिया तो मैं तो जैसे सन्न ही रह गया.
 वैसे शहर में एक बैजनाथ और भी था, बैजनाथ हलवाई, पर वो तो मोटा , थुल-थुल बदन ,ढीला-ढाला और दब्बू सा इंसान था,वो कैसे डाके जैसी वारदात के  बीच में  बचाव करने के लिए कूदने का हौसला कर सकता था ?
फिर संभल कर मैंने उस से पूछा,''लट्टू,ठीक से बता ,क्या हुआ?''
लट्टू ज्यों-ज्यों बोलता गया मेरी तो जैसे आँखें ही फटती गयीं .
मैंने झट-पट लट्टू से पतीले में दूध लिया और उसे विदा कर के दरवाज़े की कुण्डी लगाई. मेरा इरादा जल्दी से जल्दी सैय्यद साहब की हवेली की तरफ जाने का था , सैय्यद साहब का बेटा शमसू  हमारी क्लास में  ही पढता था.मैं शमसू से मिलकर सारा वाकया तफसील से जानना चाहता था और बैजनाथ जी के पास पहुंचकर उन के नज़दीक  रहना चाहता था , मेरे अन्दर न जाने क्या-क्या घुमड़ रहा था.मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था सिवाय इसके  कि मुझे बस एकदम से सैय्यद साहब कि हवेली पर मौजूद होना चाहिए.
पर उस दिन  दूध लेने में और दिनों के मुकाबले काफी ज़्यादा देर लगती देख मेरी मां भी उठ बैठी थी.पिता जी शायद रोज़ कि तरह पहले ही बैठक वाले दरवाज़े से सुबह कि सैर को निकल गए थे.
मां के पूछने पर मैंने उसे जल्दी-जल्दी सारी बात बताकर अपना इरादा बताया तो वो चिन्तित हो कर बोली,''तू वहाँ जाकर क्या करेगा? घर बैठ,
अभी तेरे पिता जी लौटकर आते होंगे ,सारी बात उनसे मालूम हो जायेगी ''.
मैं बोला,''मां,मैं बस बैजनाथ जी से मिलकर आजाऊंगा.सच कहता हूँ फालतू देर नहीं करूंगा.मुझे जाने दे ''.
और बिना मां का जवाब सुने मैं वहाँ से सरपट भाग लिया. 
मैंने दौड़कर जुलाहों के दोनों मौहल्ले पार किये और फिर मस्जिद के दूसरी तरफ सैय्यद साहब की गली में पहुँचा.
वहाँ का  तो नज़ारा ही अलग था. सारी खतौली ही जैसे  उस वक़्त  उस गली में आ जुटी थी. सैय्यद साहब की हवेली के सामने से लेकर गली के दोनों नुक्कड़ तक लोगों की टोलियाँ खड़ी थीं, लोग ऐसे जमा-जमा के सारी बातें कर रहे थे कि जैसे सारा वाकया उनकी अपनी मौजूदगी में ही हुआ हो.
बातें तकरीबन वही थीं.
मैं भीड़ के बीच में से  निकलकर किसी तरह लोगों को ठेलता हुआ  हवेली में 
दाखिल होने की कोशिश कर रहा था कि मेरी नज़र अपने पिता जी पर पड़ी जो शायद सैय्यद साहब से मिलकर वापिस लौट रहे थे, भीड़-भाड़ ज्यादा होने के कारण उनकी नज़र मेरे पर नहीं पड़ी थी पर मैंने उन्हें देख  लिया और उनकी नज़र से बचने के लिए एक आदमी की ओट में हो गया.
    अन्दर सैय्यद साहब काफी ज्यादा लोगों से घिरे हुए बैठे थे और दरोगा जी उनसे इजाज़त   लेकर वापसी की तैयारी कर रहे थे.
मैं उधर से हटकर आगे को दालान में निकल गया तो मेरी नज़र शमसू उसके भाई फैज़ और बशीर पर पड़ी और फिर मैं तो ये देख कर हैरान रह गया कि घनश्याम भाई साहब ,राधे ,लून्जूऔर जग्गू  वहाँ पहले से ही मौजूद थे. बल्कि मुझे बहुत बुरा लगा कि बैजनाथ जी के साथ इतनी बड़ी बात हो गयी और सब जानते हुए इन लोगों ने मुझे खबर तक न की. पर उस वक़्त मैंने इस बात को नज़रंदाज़ किया और तरतीब से सारी हकीकत का पूरा सिलसिला जानने की कोशिश में लग गया.
दरोगाजी के कहने पर बाकी पुलिस वाले भीड़ को हवेली से बाहर करने लगे,शमसू  के कहने पर हम लोग दालान के एक कोने में बिछी दो चारपाइयों पर जम गए.
शमसू  अपने भाई-बंधुओं के साथ मिलकर अपने अब्बाजान और अपनी अम्मीजान के पास बैठे ख़ास मेहमानों की खातिरदारी में जुट गया तो मैंने घनश्याम भाई साहब की तरफ अपना ध्यान किया.
घनश्याम भाई साहब से मालूम हुआ कि सारी वारदात के वक़्त शमसू अपने अब्बूजी के पास था और फैज़ अन्दर अपनी अम्मीजी और बहनों के पास.
घनश्याम भाई साहब जो पूरा वाकया दोनों भाइयों कि जुबानी बार-बार सुन चुके थे, मुझे तरतीब से एक-एक बात बताने लगे.
उन्हीं कीजुबानी मालूम हुआ कि बैजनाथ जी को उन की मरहम-पट्टी के लिए मुज़फ्फर नगर जो खतौली से चौदह की. मी. की दूरी पर है वहाँ जिले के मुख्य हस्पताल ले जाया गया है.
सारी बातें सुनकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई सच्ची घटना नहीं कोई फ़िल्मी कहानी सुन रहा होऊँ .
अचानक बाहर बैठक में हलचल  हुई , मालूम पडा कि  सैय्यद साहब अपनी नई अम्बेसेडर कार में बैठकर बैजनाथ जी को मिलने मुज़फ्फरनगर जा रहे हैं. 

(सारा सिलसिला काफी लम्बा है ,इसलिए उसे तफसील से अगले भाग में सुनाऊंगा. तब तक के लिए राम-राम)







No comments:

Post a Comment