Saturday, February 19, 2011

बैजनाथ - 6

सैय्यद साहब से मेरा परिचय इसलिए था क्योंकि, वे मेरे सहपाठी शमसू उर्फ़ शमसुद्दीन के पिता थे. किसानों से गन्ना खरीदते थे और उसकी बहुत उम्दा खांड बना कर बोरियां भर-भर कर दूर दिल्ली के बाज़ारों में बेचने के लिए भेजते थे.शमसू व अन्य मित्रों के हवाले से मुझे यह भी मालूम था कि वह लोग बहुत ज़्यादा ( खानदानी /पुश्तैनी )अमीर /रईस थे. रईसी का यह आलम था कि घर में पहले से एक कार होते हुए उन्होंने एक और बिलकुल नई नीले रंग की चमचमाती हुई अम्बेसडर कार खरीदी थी जिसका दाम उस सस्ते जमाने में, जब देसी घी दो रुपये सेर आता था,चौदह हज़ार रुपये बताया जाता था.
आजकल तो दो क्या तीन-तीन कारों का भी एक घर में होना कोई बहुत ज़्यादा हैरानी की बात नहीं मानी जाती पर उन दिनों तो एक कार भी पूरे शहर में किसी-किसी के ही घर में होती थी.
मोटरसाइकिल भी कोई-कोई शौकीन रईस ही रखता था
आम लोग साइकिल खरीद कर भी अपने आप को बहुत खुशनसीब मानते थे.
मुझे याद है कि कुछ महीने पहले जब मेरे पिता जी नई साइकिल खरीद कर लाये थे तो उसे संभाल कर घर के अन्दर वाले बरामदे में रखा जाता था और  माँ  आते-जाते उस पर बड़े प्यार से हाथ फिराया करती थी.
खैर ,मैं बात कर रहा  था सैय्यद साहब की ,उन्हें शायरी  का भी बड़ा शौक था, बड़े-बड़े मशहूर शायरों को बुलवा कर ख़ास मुशायरे करवाया करते थे.एक बार मैं  भी गया था एक मुशायरे में अपने पिता जी के साथ.मुझे याद है कि मैंने खूब आनन्द लेकर सभी शायरों को सुना था.शायद उन्हीं दिनों से   
मेरी साहित्यिक अभिरुचि जागृत हुई थी.
ऐसे शरीफ और शान्तिप्रिय व्यक्ति के घर डाका पडा था.
डाकुओं के सरगना का नाम था ,'नियादर'
वैसे उसकी माँ ने उसका नाम रखा था ,अशरफ अली . 
 वो मुज़फ्फरनगर की अपने जमाने की एक मशहूर तवायफ का बेटा था,जिसने अपने बेटे को अपने पेशे की खुराफातों से दूर रखने के लिए अपने आप से ही दूर कर दिया था.अशरफ अली की परवरिश एक मिशनरीज़ होस्टल में हुई थी. लखनऊ के उस मिशनरीज़  स्कूल में दसवीं की पढ़ाई करते तक अशरफ निहायत शरीफ और मेहनती विद्यार्थियों में से एक था. तेज़ दिमाग तो वो हमेशा से ही था परन्तु ग्याहरवीं और बारहवीं की अपनी क्लास में हायर मैथ और फिजिक्स के सवालों को हँसते-हँसते कर देने वाला,अपने सारे टीचर्ज़ की आँखों का तारा अशरफ बारहवीं के फाइनल एग्जाम्स से ठीक पहले न जाने कहाँ गायब हो गया.
फिर अचानक एक दिन मिशन कम्पाउंड में फादर के पास एक पुलिस इन्स्पेक्टर पंहुँचा, वो मिशन में अशरफ के बारे में पूछताछ करने के लिए आया था,उसी से मालूम पडा कि लखनऊ के पास एक गाँव में जो 
बरात लूटी गयी थी ,उसके लुटेरों में अशरफ  भी शामिल था और उसने अपना नाम ,अशरफ से बदलकर ,'' नियादर '',रख लिया था.उस लूट में ,क्योंकि कोई मारा नहीं गया था और कम उम्र अशरफ उर्फ़ नियादर का वो पहला अपराध था इसलिए अदालत ने उसे सिर्फ एक साल के लिए ,जेल कि बजाय , बाल सुधार गृह में  भेज दिया था.बाल सुधार गृह में अशरफ तो कहीं गुम ही हो गया और नियादर पूरी तरह से मंज कर एक पक्का खिलाड़ी बन कर बाहर निकला.
नियादर अशरफ से नियादर क्यों और कैसे बना ,यह राज़ कभी कोई नहीं जान पाया.
उसके बाद डाके डालना और लूट-पाट करना उसके लिए मामूली काम हो गया,पर वो कभी पकड़ा न जा सका.
पिछले साल सर्दियों में शामली के एक रईस के घर उसने डाका डाला तो अगले दिन उनकी जवान-जहान बेगम ने कूएं में कूद कर जान दे दी थी .पता ये लगा कि नियादर ने उनके साथ ज़बरन मुंह काला किया था,जिसका गम वोह सह नहीं पाईं और कूएं में कूद कर एक कुकर्मी की बदमाशी की सज़ा सारे समाज को दे गयीं.
अब जहां लोग नियादर के नाम से ही  डरते थे वहाँ उस से नफरत भी बहुत करते थे.वो तो बस एक जीता-जागता पिशाच ही था.
इस वारदात के बाद पुलिस ने नियादर पर पूरे पांच सौ रुपये का इनाम भी घोषित किया था.
सब समझ सकते हैं कि उन दिनों पांच सौ रुपये कितने मायने रखते थे. 
वो इनाम मिला बैजनाथ जी को.
बैजनाथ जी रोजाना दिन ढले सात बजे लट्टू के घर उसके दोनों बेटों को जो की आठवीं और छठी क्लास में पढ़ते थे,ट्यूशन पढ़ाने जाते थे और रात को तकरीबन आठ-साढ़े आठ  बजे तक वहाँ से लौटते थे.बदले में लट्टू पूरे प्रेम से उन्हें अपनी गाय का आधा सेर दूध गर्म करके और मीठा मिला कर रोज़ पिलाया करता था.बैजनाथ जी इस सिलसिले  से भी सन्तुष्ट थे.
उस दिन बैजनाथ जी लट्टू के घर बहुत लेट हो गए. लट्टू की गाय ने बछिया जनी थी  और बैजनाथ जी देर रात तक गाय के प्रसव और फिर उसकी सेवा-सुश्रुषा में लट्टू की मदद करते रहे. उसके बाद सब काम से निबटकर लट्टू के घर के आँगन वाले कूएं पर उस जाड़े में नहा-धोकर फ्रेश हुए और एक गिलास चाय पीकर रात को कोई एक बजे लट्टू के घर से विदा हुए.
लट्टू की गली से तीन गली पार करने के बाद एक  बहुत पुराना इमली का पेड़ था,जिसकी वजह से उसके चारों ओर एक बहुत बड़ा आहता सा बन गया था जिसमें दिन के वक़्त बच्चे गुल्ली-डंडा खेला करते थे.  और उस आहते के बाद बहुत चौड़ी सैय्यदों की हवेली वाली गली थी जिसके दुसरे सिरे पर मस्जिद थी. गली में सैय्यदों की हवेली के अलावा कुल जमा दो घर और थे जो हवेली के आजू-बाजू ऐसे खड़े थे जैसे किसी नवाब के अगल-बगल फकीर और इन तीनों मकानों के सामने जुलाहों के मकानों की एक कतार पीठ किये खड़ी थी,यानी बसावट के नाम पर पूरी गली में कुल जमा यही तीन घर ही थे.
हवेली से पहले जो घर था उसमें मुंशी साहिब्दीन रहते थे, मुंशी जी बराए नाम ही मुंशी थे असल में तो वो सैय्यद साहब की पूरी ज़मींदारी की देखरेख के लिए ज़िम्मेदार थे और माना ये जाता था कि मुंशी साहिब्दीन  को चाहे रात के दो बजे जगा कर किसी भी हिसाब के बारे में पूछ लो मुंशी जी पूरा  आने-पाई तक का हिसाब बिना किसी हिचकिचाहट के मुंह-जुबानी सामने रख  सकते  थे.अच्छी खासी तनख्वाह के साथ-साथ यह घर भी मुंशी जी को सैय्यद साहब की ओर से रहने को मिला हुआ था जहां मुंशी जी अपनी तीन-तीन बीवियों और उनके अनेक बच्चों के साथ खूब मज़े में रह रहे थे. 
हवेली के बाद मस्जिद से कोना बनाता जो बड़ा सा घर था वो सैय्यद साहब का बहुत पुराना पुश्तैनी घर था और अब न जाने क्यों खंडहर कहलाता था, जबकि अभी भी उसमें सैय्यद साहब के घरेलू  नौकर लोग अपने-अपने परिवारों के साथ अलग-अलग हिस्सों में रहते थे.इस के अलावा सैय्यद साहब के गाय-भैंस और मुर्गियां भी इसी खंडहर कहलाने वाले हवेलीनुमा मकान में रहते थे.
सारा दिन इस मकान में अच्छी-खासी चिल्ल-पों मची रहती थी.
इस घर में घुसते ही ड्योढ़ी के दायीं ओर जो कमरा था उसमें हवेली के पहलवाननुमा दो चौकीदार बब्बन और शर्फु रहते थे.
रात को यह दोनों हवेली की ड्योढ़ी में चौकीदारी के नाम पर बारी-बारी सोते थे.
चौकीदारी के इस सिलसिले को शायद कभी किसी ने कोई ख़ास  गंभीरता से नहीं लिया था,बस बराए नाम ये चला ही आ रहा था.अगर कभी किसी ने इस सिलसिले पर ज़रा भी गंभीरता से सोचा होता तो वो फ़ौरन देख लेता कि ये दोनों पहलवान , सही मायने में चौकीदार तो क्या पहलवान भी कम और मोटे-थुलथुल हलवाई ज़्यादा नज़र आते थे, जो वक़्त पड़ने पर किसी का  मुकाबला तो क्या किसी के सामने ज्यादा देर ठीक से खड़े भी नहीं रह सकते थे.बब्बन में एक और बड़ी भारी कमी थी .जब शर्फु अपनी पारी पूरी करके सोने लगता था तो वो बब्बन को चौकीदारी के लिए जगाकर तब लेटता था. इधर बब्बन मियां अंगडाई लेते हुए उठते और हवेली के विशाल दरवाज़े में बनी छोटी खिड़की को खोलकर उसमें से होते हुए बाहर गली में आ जाते और धार मारने के लिए इमली वाले आहते कि तरफ हो लेते.धार से फारिग होकर बब्बन मियाँ गली में थोड़ी देर चहलकदमी करते और फिर खिड़की के रास्ते हवेली कि ड्योढ़ी में घुसते और खिड़की की कुण्डी लगा कर अपनी ड्यूटी पर बैठ जाते.
डकैती वाले दिन भी अपनी आदत के हिसाब से बब्बन खिड़की खोलकर उसमें से होता हुआ गली में आया और सीधा इमली के आहते की तरफ रुख किया.


( सारी कहानी काफी लम्बी होती जा रही है ,तो आज यहीं विश्राम लेते हैं,बाक़ी बहुत जल्दी पेश करूंगा. कृपया अपनी बहुमूल्य राय अवश्य लिखें, मुझे अच्छा लगेगा.धन्यवाद.)

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