Sunday, March 6, 2011

बैजनाथ-7

बैजनाथ जी लट्टू के घर से चल कर गलियाँ पार करते हुए जब इमली वाले आहते तक पहुंचे तब और सब गलियों की तरह वहाँ भी नीम-अन्धेरा ही था.
          मैं बीच में रुक कर एक बात बताना  चाहूंगा .उन दिनों गलिओं में बिजली कि रौशनी नहीं होती थी,गली के नुक्कड़ पर किसी मकान की दिवार पर या खम्बों पर रौशनी  के लिए बड़े-बड़े लैम्प लगाए जाते थे. इन लैम्पों की सुरख्या के लिए इन्हें लोहे के फ्रेम वाले शीशे के बड़े-बड़े बक्सों में रखा जाता था जिनका ऊपर का ढक्कन वाला भाग लोहे की चादर का होता था जिसमें से धुआं आदि निकलने के लिए  एक छोटी सी चिमनी भी लगी होती थी. रोजाना दोपहर बाद एक आदमी आता, जो लैम्पों की चिमनी आदि की साफ़-सफाई करता उनमें मट्टी का तेल भरता और चला जाता.दिन ढले दूसरा आदमी आता और लैम्प जलाकर जाता .इन  लैम्पों में इतना तेल होता था कि वो रात दो-ढाई बजे तक जलते रहते थे.उन दिनों हमें इन लैम्पों  कि रौशनी काफी लगती थी और अब तो सब को ऐसी आदत हो गयी  है कि आँखें तेज़ रौशनी के बिना कुछ देख ही नहीं पातीं. 
इमली के पेड़ के पास से गुज़रते वक़्त अचानक बैजनाथ जी को ठोकर लगी और वो भर-भराकर मुंह के बल गिर पड़े.कुछ संभले तो उन्होंने देखा कि इमली के नीचे ज़मीन पर  एक अच्छा-खासा मोटा आदमी पड़ा था जो शायद बेहोश भी  था. गौर से देखने पर उन्हें मालूम पड़ा कि उस मोटे आदमी के हाथ  पीठ के पीछे करके बड़ी मजबूती से बांधे हुए थे, यही हाल दोनों पैरों का था और मुंह में कपड़ा ठूंसा हुआ था. 
बैजनाथ जी ने सबसे पहले उसके मुंह में से ठूंसा हुआ कपड़ा निकाला और फिर उसकी नब्ज़ टटोली .नब्ज़ चल तो रही थी पर धीमी थी,फिर उन्हों  ने बेहोश पड़े मोटे आदमी के हाथ -पैर खोले और जहां रस्सी से कस कर बांधा गया था वहाँ उसके हाथ-पैरों को धीरे-धीरे मसलने लगे ताकि रुका हुआ खून का दौरा ठीक हो सके,इसके बाद बैजनाथ जी को और तो कुछ सूझा नहीं, वो उठकर वापिस लट्टू के घर की तरफ भागे.
 दरवाज़ा खटखटाने पर लट्टू ने दरवाज़ा खोला ,वो भी बस सोने की तैयारी में ही था.
बैजनाथ जी को वापिस आया देख लट्टू बोला,''के बात बैजनाथ,वापस कैसे आ लिया अर घबराया हुआ क्यूं है?''
बै.ना.:सब बताऊंगा, लट्टू भाई,पहले लालटेन और एक लोटा पानी ले के आओ और मेरे साथ चलो .
ल.:''पर हुया के है,कुछ बोल्लेगा भी.''
''बात मत करो लट्टू भाई और  जल्दी करो ,'' कहते हुए बैजनाथ जी ने लट्टू सिंह को घर के अन्दर की तरफ धकेला और खुद उन्होंने दीवार के सहारे  खडा लट्टू सिंह का डेढ़ इंच मोटा और कोई तीन फुट लंबा  डंडा उठा लिया.''
लट्टू लालटेन की लौ  ठीक करते हुए तेज़ी से आया  और उसके पीछे-पीछे पीतल के चमचमाते लोटे में पानी लिए हुए उसकी बीवी आ गई. 
''भाभी,जब तक लट्टू भैया ना आ जाएँ दरवाज़ा मत खोलनाऔर खामखा घबराओ नहीं ,भैया अभी वापिस  आते हैं.''बैजनाथ जी पानी का लोटा पकड़ते हुए बोले.
बैजनाथ जी तेज़ी से गली में चले तो लालटेन लिए-लिए लट्टू भी उनके पीछे-पीछे लपका .दोनों तेज़ी से इमली के नीचे पहुंचे .
मोटे आदमी पर लालटेन की रौशनी पड़ी तो लट्टू सिंह एक दम बोल पड़े,''अरे,ये तो बब्बन पहलवान है.ये यहाँ कैसे आया.''
बैजनाथ जी ने बब्बन के मुंह पर पानी के छींटे मारने शुरू किये और लट्टू से पूछा ,''कौन बब्बन ?''
लट्टू बोला,''ये सैय्यद साहब का पहलवान है ,उनकी हवेली में रात को चौकीदारी भी करता है.''और साथ ही लट्टू ने बब्बन को झिन्झोड़ना शुरू किया.
बैजनाथ जी ने लट्टू को सारी बात, कि उन्हें बब्बन कैसे-कैसे  बंधा हुआ मिला था, जल्दी-जल्दी बताई और लट्टू को बब्बन के पास छोड़कर तेज़ी से हवेली के दरवाज़े कि तरफ लपके.
बैजनाथ जी ने हवेली के दरवाज़े को धीरे से अन्दर की तरफ धक्का दिया पर वो हिला भी नहीं,दरवाज़ा अन्दर से मजबूती से बंद था,फिर बैजनाथ जी ने  दरवाज़े की खिड़की को अन्दर की तरफ धक्का देकर खोलने की कोशिश की पर वो भी अन्दर से बंद थी. बैजनाथ जी वापिस इमली के पास पहुंचे.
बब्बन को होश आना शुरू हो गया था और वो धीरे-धीरे कराह भी रहा था,  साथ ही  साथ वो  अपने सिर  के पीछे भी टटोल रहा था.
बैजनाथ जी बब्बन के सिर को अपनी गोदी में लेकर बैठ गए और उससे बोले,''बब्बन,तुम मुझे यहाँ  बेहोश और बंधे हुए  पड़े  मिले थे,तुम यहाँ कैसे पहुंचे और तुम्हारा ये हाल किसने और कैसे किया ?''और बैजनाथ जी लट्टू से बोले ,''लट्टू भाई,हवेली का दरवाज़ा और उसकी खिड़की अन्दर से बड़ी मजबूती से बंद हैं तो ये बाहर क्या कर रहा है?'' 
''मैं कहाँ हूँ?'' बब्बन चारों ओर निगाह घुमाते हुए कराहते हुए बोला.
बैजनाथ जी ने बब्बन को सहारा देकर बिठाया और पानी का लोटा उसके मुंह से लगाते हुए बोले,''पहलवान जी, आप इमली के नीचे बंधे हुए बेहोश पड़े थे,अब ज़रा पानी पीओ और अपनी याददाश्त पर जोर देकर  बिना वक़्त गंवाए सारी बात ठीक-ठीक से बताओ ताकी पता लगे कि माजरा क्या है,मुझे तो मामला बहुत खतरनाक सा लग रहा है,और ये वो रस्सियाँ हैं जिनसे आप के हाथ और पाँव बांधे गए थे.'' ये कहते हुए बैजनाथ जी ने रस्सी के दोनों बड़े-बड़े टुकड़े बब्बन की आँखों के सामने लहराएऔर फिर दोनों रस्सियाँ अपनी कमर पर बाँध लीं.
फिर बब्बन ने कुछ घूँट पानी के पीये और अटक-अटक के कहना शुरू किया,''मैं तो  रोज़ की तरह दरवाज़े की खिड़की खोल कर पेशाब करने के लिए बाहर निकला था यहाँ पहुंचा तो किसी ने जोर से मेरे सिर पे पीछे से लाठी दे मारी और मैं यहीं बेहोश होकर गिर पड़ा,पर खिड़की तो खुली थी और तुम कौन हो भाई,और तुम लट्टू को कैसे कह रहे थे की दरवाज़ा और उसकी खिड़की दोनों अन्दर से बंद हैं ? ये ज़रूर हरामजादे शर्फु की शरारत है ,मैं उसे छोडूंगा नहीं.''कहते हुए बब्बन ने उठने की कोशिश की तो एकदम से उसे चक्कार आ गया और वो वहीं सिर पकड़ कर बैठ गया.
बैजनाथ जी ने लट्टू से पूछा  ,''यह शर्फु कौन है?'' 
''शर्फु इसका साथी है और इसके साथ ही चौकीदारी करने वाला वो दूसरा पहलवान है.'' लट्टू सिंह ने बताया.
बैजनाथ जी  बोले ,''पहलवान जी ,जहां तक मैं सोचता हूँ आपकी ये हालत आपके साथी शर्फु ने नहीं बल्कि बदमाशों ने की है और मैं शर्तिया तौर पे कह सकता हूँ की इस वक़्त शर्फु भी आप की तरह ही अन्दर बन्धा पड़ा होगा और जिन्हों ने भी ये काम किया है उनके इरादे मुझे ठीक नहीं लगते,जब तक आप की तबीयत संभलनहीं जाती आप यहीं रहो ,हम देखते हैं की क्या हो सकता है.आओ लट्टू भाई.''कहते हुए बैजनाथ जी हवेली की तरफ लपके और लट्टू उनके पीछे-पीछे लपका .
हवेली के दरवाज़े पर पहुँच कर बैजनाथ जी ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ डंडा लट्टू को पकडाया और बोले,''लट्टू भाई,ये तो मैं अच्छी  तरह से जानता हूँ कि आप कभी भी किसी से डरने वाले नहीं हैं पर इस वक़्त मैं आप से ये कहना चाहता हूँ कि लालटेन धीमी करके अपने पीछे रख लो और इस खिड़की के पास डटे रहो, जो भी कोई निकलेगा इसी खिड़की के रास्ते ही बाहर निकलेगा ,याद रखना ,बाहर कोई भी  ना निकलने पाए ,ज्यों ही गर्दन बाहर निकले घुमाके डंडे कि ऐसी चोट मारना कि एक चोट में ही खोपड़ी खुल जाए दूसरी चोट कि ज़रुरत नहीं पड़नी चाहिए.'' कहते हुए बैजनाथ जी खंडहर कि तरफ को चलने लगे.
''पर बेटा, तू  न्यूं एकला  और निहत्था के  करन की सोच रह्या  है ?कम से कम यो  डंडा तो ले ले, न जाणे अन्दर कितने बदमाश हैं ,बलके ने मैं न्यूँ
करूं के  पिछली गली में जाके ने  वहाँ तै  कुछ और लोगां  ने  भी जगाये ल्यावूं  हूँ सब मिल्के ने  खड़े होवेंगे तो मेरी समझ में ज़्यादा बढ़िया काम बडेंगा.''लट्टू चिंतित स्वर में कहने लगा.
''ये डंडा तुम्हारे लिए ही है ,लट्टू भाई,मैं तो खाली हाथ ही ठीक हूँ और मुझे लगता है की पहले ही बहुत देर हो चुकी है ,अन्दर न जाने क्या कुछ हो रहा है ,कहीं भी जाने का वक़्त नहीं है,आप बस मेरी यहीं इंतज़ार करना.मैं अन्दर घुसने का रास्ता देखता हूँ ,मुझे लगता है कि इस साथ वाले मकान की छत से ही कोई न कोई रास्ता मिलेगा''.ये कहते हुए बैजनाथ जी खंडहर की तरफ लपके.
बैजनाथ जी ने एक नज़र खंडहर की सामने वाली दीवार पर डाली तो उन्हें मकान के मस्जिद की तरफ वाले कोनें में मस्जिद की छत्त से नीचे तक आता हुआ लोहे का एक  काला सा पाइप नज़र आया.शायद ये बरसाती पानी की निकासी के लिए लगाया गया था.एक सैकिण्ड  के लिए बैजनाथ जी के मन में ये संशय पैदा हुआ कि ये पुराना पाइप न जाने मेरा वज़न ले भी पायेगा या नहीं पर फिर उन्होंने सोचा कि इस वक़्त और कुछ चारा भी नहीं  है और फिर बिना वक़्त गवांये बैजनाथ जी ने अपनी जूतियाँ वहीं उतारीं और लट्टू के देखते ही देखते बन्दर कि सी फुर्ती से मस्जिद की मुंडेर पर चढ़ गए.
और वक़्त होता तो बैजनाथ जी की फुर्ती देख कर लट्टू वाह-वाह कर उठता पर इस वक़्त तो वो बस मुंह बाए देखता ही  रह गया .  
वहाँ से रास्ता आसान था, खंडहर की दीवार से लगी हुई मस्जिद की मीनार खड़ी थी. बैजनाथ जी ने मस्जिद की मीनार के दरवाज़े की कुण्डी खोली और उसमें घुस गए.मीनार के अन्दर गोल-गोल सीढ़ियों को चढ़ते हुए बैजनाथ जी ऊपर पहुंचे और झरोखे से बाहर निकल  कर खंडहर की छत्त पर उतर गए . अन्दर पूरे मकान में सन्नाटा था,रात की इस घडी इंसान तो क्या जानवर और मुर्गियां तक अपने-अपने घोड़े बेचकर चैन की नींद सोये पड़े थे.ये चौकोर छत्त थी जिसके बीचों-बीच नीचे से लेकर ऊपर तक खुला दालान था.बैजनाथ जी बिना आवाज़ किये उकडू होते हुए ही 
बड़ी तेज़ी से हवेली और खंडहर की छतों के बीच वाली मुंडेर के पास पहुंचे.
  बैजनाथ जी जानते थे कि इस से आगे उनका हर क़दम उनके लिए निर्णायक साबित होने वाला था.
बैजनाथ जी ने देखा कि मुंडेर में बीच-बीच में झरोखे से बने हुए थे.छत के एक कोने से उन्होंने इन झरोखों में से हवेली की छत पर झांकना शुरू किया,
हवेली की छत भी इस मकान की तरह चौकोर थी और उसके बीच में भी खुला दालान था.इस खुले दालान के चारों तरफ सुरख्या के लिए कोई चार फुट ऊंची मुंडेर बनी हुई थी.शुरू में बैजनाथ जी को हवेली के आगे वाले हिस्से की छत नज़र आई, जो हवेली की आगे वाली मुंडेर और दालान की मुंडेर के बीच इस सिरे से सामने वाले किनारे तक सपाट खाली थी. छत खुले दालान की मुंडेर के चारों ओर आयताकार में घूमी हुई थी.बैजनाथ जी जिस मुंडेर के पीछे थे उसके साथ वाली छत भी खाली थी,सामने कोने में सीढ़ियों का दरवाज़ा था.जो अँधेरे में ध्यान से देखने पर मालूम पड़ा कि खुला हुआ था.हवेली के दालान की परले वाली मुंडेर के पीछे जो छत का हिस्सा था वो मुंडेर की आड़ होने की वजह से नज़र नहीं आ रहा था.वहाँ कोई न कोई होसकता था.  अचानक बैजनाथ जी को मुंडेर के पीछे कुछ हिलता हुआ सा लगा. घने अँधेरे में आँखों पर बहुत जोर डालने पर उन्हें एहसास हुआ कि उधर छत  पर कोई था,जो छत पर चौकसी के लिए सावधानी से 
टहल रहा था.वो छत पर अकेला था या उसके साथ उसका कोई साथी भी था ये जानना बहुत ज़रूरी था,फिर उनकी ये समस्या अपने आप हल हो गई.
उधर टहल रहे आदमी ने मुंडेर से नीचे  दालान में झांका और धीरे से बोला,''अंसार,क्या बात है ,बहुत देर लग रही है ?''आवाज़ में बहुत बेचैनी थी.
''चुप कर और कुछ देर और ऊपर ही अपनी तवज्जो रख.'' नीचे से किसी ने दबी हुई पर तीखी आवाज़ में ऊपर वाले को फटकारा. जवाब में उसने छत पर थूक कर अपना गुस्सा उतारा और मुड़कर हवेली की सामने वाली मुंडेर के पास जा कर धार मारने की कोशिश में लग गया.
बैजनाथ जी को यह  विशवास तो  हो गया कि छत पर जो भी आदमी है वो वहाँ अकेला ही है पर उसे गली कि तरफ वाली मुंडेर के पास देखकर उनका दिल सहम  गया. उन्हों ने मन ही मन भगवान् से प्रार्थना की, कि वो कहीं उचक कर गली में न झाँक ले वरना बंटाधार ही हो जाएगा ,क्योंकि गली में  डंडा लिए लट्टू चौकस खडा साफ़ नज़र आ जाना था.
बैजनाथ जी बिना एक पल झिझके छतों के बीच की मुंडेर पार कर हवेली कि छत पर आ गए और दालान की मुंडेर का दबे पाँव उकडू हालत में ही तेज़ी से घेरा काटा और पेशाब करते आदमी के पीछे सांस रोके जा खड़े हुए.
जब वो आदमी पेशाब कर के अपने पाजामे का नाड़ा बांधते हुए पलटा तो बैजनाथ जी को एकदम अपने सामने पाकर हैरान ही रह गया,हैरानी से उसका मुंह खुला का खुला रह गया और आँखें फैलती चली गयीं,ऐसे जैसे उसने भूत देख लिया हो .
इस से पहले की वो बैजनाथ जी की मौजूदगी से संभल पाता या चिल्ला कर अपने साथियों को नीचे सावधान कर पाता उसकी गर्दन और कंधे के जोड़ पर बैजनाथ जी की  दायें हाथ की तिरछी  हथेली की  ऐसी  करारी चोट पड़ी कि बैजनाथ जी को उसकी कालर  बोन चटकने की  आवाज़ साफ़-साफ़ सुनाई पड़ी और  वो  आदमी चकराकर वहीं के वहीं गिरने लगा.बैजनाथ जी ने उसके गिरने से पहले ही उसकी जाँघों के बीच अपने दायें घुटने की ऐसी भरपूर चोट की ,कि उसके मुंह से एक लम्बी  फुत्कार  निकली, जैसे गुब्बारे से हवा निकली हो और वो बैजनाथ जी के हाथों में ही बेदम होकर लुढ़क गया.
बैजनाथ जी ने उसे दोनों हाथों में संभाला और छत पर लिटा दिया.उन्होंने उसकी नब्ज़ टटोली .नब्ज़ बहुत ही धीमे-धीमे चल रही थी.बैजनाथ जी को पूरा भरोसा था की वो कम से कम एक घंटे से पहले होश में नहीं आने वाला था ,वो हैरान भी थे कि ऐसा लंबा-चौड़ा आदमी इतना लिजलिजा निकला था कि एक हाथ पड़ते ही टें बोल गया था.
बैजनाथ जी ने फुर्ती से उसकी तलाशी ली तो उन्हें उसकी कमीज़ की बगल वालीजेब से कमानीदार रामपुरी चाक़ू मिला.उसके हाथ वाली लाठी और इस चाक़ू के अलावा उसके पास और कोई हथियार नहीं था.इस आदमी और इसके साथियों को शायद अपने ऊपर कुछ ज़्यादा ही भरोसा मालूम पड़ता था पर बैजनाथ जी हैरान थे कि ये कैसा डकैत था जो बिना हाथ कि लाठी चलाये एक हाथ पड़ते ही लोट गया था.
खैर जो भी हो शुरुआत अच्छी हुई थी.
बैजनाथ जी ने जल्दी-जल्दी उसका नाड़ा खींच कर उसका पजामा उतारा और फिर नाड़ा खींच उसका कच्छा भी उतार दिया,आदमी रंगीन था,पजामा और कच्छा दोनों के  नाड़े मोटे-मोटे रेशमी और रंगीन थे,पट्ठे ने उनका काम आसान कर दिया था. 
 बैजनाथ जी ने  उसका कच्छा उसके मुंह में ठूंसा उसकी कमीज़ की एक बांह फाड़ी और उससे उसका  मुंह बाँध दिया.फिर  नाड़ों कि मदद से पीठ पीछे उसके हाथ और फिर उसके पाँव भी खूब मजबूती से बाँध दिएऔर उसे नंगी और बंधी हुई हालत में ही एक तरफ छत पर लुढका दिया .
उस से निबट कर बैजनाथ जी ने बड़ी सावधानी से मुंडेर के ऊपर से नीचे आँगन में झांका.नीचे सीढ़ियों के दहाने  पर एक आदमी सीढ़ियों कि तरफ पीठ किये हाथ में दोनाली बन्दूक लिए खडा था. जिस सतर्कता से वो खडा था उसी से बैजनाथ जी समझ गए कि यह आदमी बड़ा चौकन्ना था.शायद इसी को ऊपर वाले आदमी ने अंसार कह के बुलाया था.
बैजनाथ जी दबे पाँव सीढियां उतरने लगे,दूसरी मंजिल पर हर तरफ बेतरतीबी सी फैली हुई थी.सीढ़ियों के पास गैलरी में एक बड़े से ड्रम में सफेदी भीगी हुई थी और उसके पास ज़मीन पर कुछ डब्बे और सफेदी करने के लिए इस्तमाल होने के लिए कनस्तर आदि पड़े थे.
पहली मंजिल की  हालत भी यही बता रही थी कि वहाँ भी दूसरी मंजिल की तरह रंग-रोगन का काम चल रहा था.यानी पहली और दूसरी दोनों मंजिलों पर  सफेदी और रंग रोगन का काम इकट्ठा चल रहा था,जिसकी वज़ह से वक्ती तौर पर घर के लोग ऊपर वाली दोनों मंजिलें खाली करके हवेली के नीचे  वाले हिस्से में डेरा जमाये हुए थे.लुटेरों  ने मौका बहुत सही ताड़ा था.अकेली नीचे की मंजिल पर सारे घर वालों को संभालना ज्यादा आसान काम था.इसीलिए ऊपर छत पर सिर्फ एक आदमी को पहरे के लिए छोड़ना काफी समझा गया था . बाकी जितने भी बदमाश थे सब नीचे घर वालों के साथ ही थे.   

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